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12:55, 6 जून 2010 का अवतरण
दादा खुराना
1
हमने देखा था एक चेहरा
किताबों की दुकान में
किताबों के गट्ठर
कभी खोलता हुआ
कभी बांधता हुआ
किसी न किसी किताब के पन्ने उलटता हुआ
किताबों पर पड़ी धू झाड़ता हुआ
लोहे की कुर्सी पर बैठकर
कभी-कभी चाय की चुस्कियां लेता हुआ
वह नहीं
उसकी मुस्कान बताती थी
कि उसकी दुकान पर
कुछ नई किताबें आई हैं
वह अजीब दोस्त था
हमसे कुरेद-कुरेद कर हमारा हाल-चाल पूछता
और अपना हाल-चाल बड़ी मुश्किल से बताता
हममें से बहुतों पर उसका बकाया था
और बहुतों का उस पर
पर उसे विश्वास था
और वह विश्वास पर जीए जाता था
हमने देखा था एक चेहरा
किताबों की दुकान में
2
उसे चेहरे को रोज देखना
उसे सलाम करते हुए
एक आत्मविश्वास से भर जाना
इतना नियत था
कि अब भी जब उधर निकलते हैं
तो हाथ अनायास उठ जाते हैं
नमस्कार की मुद्रा में
सचमुच विश्वास नहीं होता
कि वह चेहरा
जो हरदम किताबों से घिरा रहता था
अब किताबों के बीच नहीं है
हम बड़े खुशनसीब रहे
कि हमने उस चेहरे को देखा
उसके साथ चाय की चुस्कियां लीं
उससे गुफ़्तगू की
अपनी निराशा के दिनों में
सलाह मशविरे किए।
1998