"जुलूस में बूढ़ा पेत्कोव / कर्णसिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर
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00:59, 8 जून 2010 का अवतरण
अधटूटी टाँग को घसीटता
जुलूस में चल रहा बूढ़ा पेत्कोव ।
उम्र से नहीं झुकी
यह गरदन
बस यूँ ही
सड़क में गड़ी है।
उतना ही बड़ा है जुलूस
वैसे ही खिड़कियों पर खड़े हैं लोग
लाल पताकाएँ फहरा रहीं चारों ओर
वही स्तांबोलिस्की का
परिचित बुलेवार्ड ।
बहुत दिन बाद निकाली है
फौजी पोशाक
तमगों भरी
फिर भी कहीं कुछ अड़ा है
कि बस नज़र झुकाए
जुलूस में चल रहा बूढ़ा पेत्कोव ।
हरी हैं तमाम यादें
बाल्कान की गुफ़ाओं में
जाने से पहले
रेड वाइन की वे विदाइयाँ
इसी सड़क पर
भारी बूटों की क़दमताल का संगीत
वर्दी में तने सीनों की ऊष्मा
झरोखों से बरसते लाल फूल ।
तोवारिश दिमित्रोव को बगल में
जीवन का मोह छोड़ शत्रु पर हमला
कुछ भी नहीं भूला पेत्कोव ।
कल की तो बात है
अधटूटे पैर के बावजूद
वापसी में जीत का वह उल्लास ।
वक़्त नहीं था शहीदों पर रोने का
बनाने थे
नगर और बांध
इस्पात के कारखाने
ढालना था उनमें नया इन्सान
इसी में जुट गया पेत्कोव ।
कुछ बना कुछ रहा अधबना
तभी लगा
हाथ से फिसल रही धरती
आँखों से छूट रहा अंबर
रिस रहा समय ।
नए नए वेश में आए हमलावर
सफ़ेद झंडा उठाए
वर्दी उतार सुस्ताने लगा देश
बच्चे सुनते रहे परियों की कथाएँ
उद्दाम संगीत में
खोए रहे युवजन
शरीर की हसीन वादियों में
भटक गए सुंदर तन-मन ।
बेमानी होने लगीं इतिहास की कथाएँ
अधूरा लगने लगा विकास
अकेले पड़ने लगे पेत्कोव ।
किसने सोचा था
कभी यह दिन भी आएगा ?
इस उम्र में
दिमित्रोव की लावारिस लाश को
बचाना होगा गिद्धों, सियारों से
किसने सोचा था
इसी सोच में चल रहा पेत्कोव ।
व्यर्थ गया जीवन
संघर्ष और बलिदान
कुछ भी नहीं बचा सपना
उमंग, अभिलाषा
भविष्य की आशा ।
अब इस अंतिम बेला में
इस जर्जर अधूरे शरीर को ढोना है
हवा में व्यापे व्यंग्य विद्रूप सम्मूख
अपराधों का रोना रोना है ।
यह कोई मार्च नहीं है
बस एक कवायद है
शवयात्रा की
सबसे प्रिय पुत्र की लाश को
ढलके कंधों पर ढो रहा पेत्कोव ।
कई अकारथ जन्मों को रो रहा पेत्कोव ।