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"‌साथ-साथ / कर्णसिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर

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01:28, 8 जून 2010 के समय का अवतरण

य’ राग सम प’ आ गया है
बतियाते चलने लगे हैं क़दम
शहर में बिखर गई धूप
बादल तक गोरा रंग छा गया है ।

सड़क की सूनी गोद भरी
तार झनझनाए
यहाँ हवा में कहवा की महक है
मैं यू’ ही बैठा हूँ
तुम, लौट आओ ।

पगडंडी तकते गुज़र गई
कई शाम
तालाब कब से पुकार रहा है
यहाँ भी ठीक है
लेकिन वहीं चलो
यह महक कब से सूना है
इसे भरो ।

यह चाँदनी में घुल गया
हर रंग
ये फूल उन्मुक्त खिल रहे हैं
इनकी पंखुडियों को भरे हैं
कोयल
ये सीपी धीरे से खूल रही हैं
चाँदनी में चमका मोती

और संगमरमर पर तराशे निशान
सुबह के सूरज की आभा में
रक्तिम हो उठे हैं
कितने सुख की नींद जागा हैं
कमलदल
कि उसी क्षण टपकी है
ओस की कनी
यह पूरी बरफ़ पिघल गई है।

चू गई सहमकर
बारिश की बूँद
सारी धरती शावकों के शोर से भर गई है

उठो
पूरा परिवेश बदल गया है
सारस का यह जोड़ा
पहाड़ के वक्ष पर आसीन

बिला गए हैं दिन-रात
देश-परदेश
रंग और राग
केवल मौन
और मौन में आग
सपाट हो गया शहर
स्मृति में भरा ऐंठा है ।

यह कहानी किस्सा बन गई है
यह पहाड़ी साक्षी
और बगीचा प्रमाण
उस जन्म में ये यहीं थे ऐसे ही
सिर झुकाए वह बग्गीवान
सच को भुला रहा है ।

अगवानी में घिर रहे हैं मेघ
बरस रहा पानी
मुझमें वैसे ही छिप जाओ
चीड़ का घेरा बस इतना है ।

अब निकलो यहाँ से
उस सुदूर झील की ओर
कथा के सब जासूस
वैसे ही चौकस हैं
इन्हें मत देखो
ये उस जन्म के परिचित है ।
यहीं मरे थे हम
बचा नही पनाह देने वाला वह बूढ़ा भी

और वह मोनास्तर
इसलिए जल्दी करो
भरो लंबी उसाँस
मानसरोवर झील तक
भले ही हादसे भरा हो उसका किनारा
वह
धरती आकाश तक फैला है
वहाँ कितना पावन है मन
चलो वहीं चलें ।

डविल्स थ्रोट
खेल रही है नदी
भंवरो में
चक्कर काट रही है नदी
खेल में दिपती
दो खंजन आँखें

भंवों के इशारे पर
खांडे की धार नापते पाँव
बुला रही है नदी ।
बाहर भीतर अनहद
घुप्प अंधेरे में
छू रही है नदी ।

जो भी यहाँ आया
डूबा
कभी मिला नहीं ।

ऊँचे पहाड़ के बंद उदर में
गरजती हो तुम
गर्जते हैं सौ पहाड़
ग्रीस का सीना सीमा पार
पत्थरों पर खुदे हैं
तुम्हारी बलि चढ़े नाम
पर्यटक आते हैं
पढ़ने, सुनने
तुम्हारे लेख
तुम्हारे स्वर
तुम्हीं में समाने ।

वे आते हैं
चहकते
खेलते
और डूबकर जाते हैं
अकेले
अस्तित्वहीन
फिर भी बार-बार आते हैं ।