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अंतर्वाणी / सुमित्रानंदन पंत
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18:32, 8 जून 2010
प्रीति प्राण में
अमर हो बसी
गीत मुग्ध
हो
हों
जग के प्राणी
निःस्वर वाणी!
</poem>
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