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"मैं कौन? कहाँ से तिर आयी हिम-कणिका-सी ! / प्रथम खंड / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर

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सुख-दुःख में लेते जो नूतन आकृतियाँ धर  
 
सुख-दुःख में लेते जो नूतन आकृतियाँ धर  
 
चढ़ जन्म-मरण-दोलों पर  
 
चढ़ जन्म-मरण-दोलों पर  
 
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क्रमश: तारक द्युतिहीन, लीन स्वर-मधुप-वृन्द
 
नयनों की स्वप्निल कुमुद-कौमुदी हुई बंद
 
उल्लासित अहल्या यौवन-सुषमा ले अमंद
 
आकुल, अधीर-सी भुला नींद के द्विधा-द्वन्द
 
छाया-सी भू पर उतरी
 
 
 
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वक्सर के पावन सिद्धाश्रम तक आ सहास
 
सहसा ठिठकी स्वर-मुग्ध मृगी-सी अनायास
 
मुड़ चली सघन तरु-तले, सलाज, सभ्रम, सलास
 
मधुमास छा गया वन-वन, पिक-रव-प्रियाभास
 
संकुचित भीत-सी सिहरी
 
 
 
गौरांग, स्वस्थ, तप-पूत, ज्योति के सायक-से
 
पुरुषोत्तम सर्व-गुणोपम, विश्व-विधायक-से 
 
कंपित लतिका के भाव-सुमन सुख-दायक-से 
 
चरणों पर बिखर रहे थे
 
  
 
उज्जवल ललाट, घनश्याम लहरते केश-जाल
 
गैरिक पट, कटि-तट कसे, कंठ-धृत सुमन-माल
 
गंभीर, धीर, छवि-दीप्त, चेतना ऊर्ध्व-ज्वाल
 
प्रतिभा-प्रतिभासित, यशोदीप्त, कृश भी विशाल
 
क्षण-क्षण तप निखर रहे थे
 
 
 
. . .
 
 
 
सहसा नभ-ध्वनि सुन, 'सिद्धि तुम्हें दी स्रष्टा ने
 
मुनि! ग्रहण करो यह, व्यर्थ न मन शंका माने
 
बोले, 'स्वागत है, जीवन-सहचर अनजाने!
 
क्या तुम प्राणों के क्षत-विक्षत ताने-बाने
 
मृदु स्मितियों से बुन दोगी?
 
 
 
 
 . . .
 
 
'अंतर की अकलुष स्नेह-वृत्ति कब हुई मृषा!
 
तन मिलता उससे जिससे मन की बुझी तृषा
 
सेवा-वंचित यह, आर्य! आपकी खिन्न दशा
 
मैं दूँगी इन सूखे अंगों में सुरभि बसा
 
जो असमय कुम्हलाये हैं
 
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दिन भर तप कर रवि-से लौटोगे, जभी गेह
 
मैं संध्या-सी देहरी-दीप में भरे स्नेह
 
अर्पित कर दूँगी यह नामांकित सुमन-देह
 
मैं बरस, बिखर, जैसे पावस का प्रथम मेंह
 
अंतर मधु से भर दूँगी'
 
 
. . .
 
 
यों ही जीवन के बीते कितने संवत्सर
 
चढ़ ज्वार प्रेम का चोटी तक, फिर गया उतर
 
हिम-ताप-विकल पावस कितने दृग से झर-झर
 
पथ के प्रवाह को मृदुल कठिनताओं से भर
 
आ-आकर चले गये भी
 
 
 
. . .
 
 
संध्या-वंदन को गये त्वरित मुनि छोड़ शयन
 
पनघट पर अटपट पहुँच अहल्या चकित नयन
 
घट पर से बहते जल में असफल मीन-चयन
 
बन गयी सहज जय-ध्वजा मयन की ज्योति-अयन
 
मुक्तालक-जित घनमाला
 
 
 
खोयी-खोयी-सी चिर निरर्थ-मन, यहाँ-वहाँ
 
लौटी कुटीर में शेष त्रियामा निशा जहाँ
 
'छल आज उषा का! मुनि कैसे चल दिए? कहाँ?'
 
मलयज ने कानों से लगकर कुछ मौन कहा
 
थर-थर काँपी वह बाला
 
 
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यह कौन कक्ष में पूनो शशि-सा मंदस्मित
 
धकधक करता था हृदय, चेतना तमसावृत
 
'ऋषि लौटे निशि-भ्रम जान कि प्रिय प्राणों में स्थित?
 
कटंकित, अपरिचित नि:श्वासों से आकर्षित
 
सर्वांग शिथिल, भय-कातर
 
 
 
अवसन्न गौतमी, झलका ज्यों दव-सा समक्ष
 
'यह इंद्रजाल रच रहा कौन गन्धर्व, यक्ष? 
 
फूले फेनिल जलनिधि-सा उठ-उठ मुकुर-वक्ष
 
द्रुत गिरा, मृगी-सी चौंक, चकित सहसा अलक्ष
 
सकुची सुन प्रेमभरे स्वर
 
 
. . .
 
 
सुरपति यह जिसने पति-अनुकृति धर ली अनूप
 
पाटल-विकीर्ण पथ नहीं, अतल चिर-अंध-कूप'
 
कानों से लग बोले दृग-मधुकर, दंश-रूप
 
आया कुसुमित शर ले अरूप वह बाल-भूप
 
बह चली वायु अनुकूला
 
 
 
सुगठित भुज-पट्ट, कपाट-वक्ष, हिम-गौर स्कंध
 
तनु तरुण भानु-सा अरुण, स्रस्त-तूणीर-बंध
 
दृढ जटा-मुकुट-शिर, कटि-तट मुनि-पट धरे, अंध
 
प्रेमी के छल पर सलज, विहँस, उन्मद, सगंध
 
उर-सुमन प्रिया का फूला
 
 
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पगध्वनि सहसा, भुजबंधन-से खुल गये द्वार
 
पूजोपरान्त मुनि लौटे करते-से विचार
 
'विभ्रम कैसा? मन आज विकल क्यों बार-बार?
 
तप-स्खलन-हेतु क्या यह भी कोई नव प्रहार?
 
कुछ नहीं समझ में आता
 
 
 
देखा सहसा सम्मुख जो चिर-कल्पनातीत
 
सुरपति कुटीर से कढ़े प्रात-विधु-से सभीत
 
थी खड़ी अहल्या विनत, लिए मुख-कांति पीत
 
स्मितमय भौंहों में अतनु छिपा था दुर्विनीत
 
दुहरी जय पर इतराता
 
. . .
 
प्रेयसी वही जो वय-स्नेहाकुल, सजल-प्राण
 
मानस के तट तिर आयी उस दिन चिर-अजान
 
रागिनी वही यह आज विवादी-स्वर-प्रधान
 
पौरुष की हँसी उडाती-सी विपरीत-तान
 
स्वर के पर खोल रही थी
 
 
 
अपराधी-सा पत्नीत्व खडा नत-नयन मौन
 
यौवन अल्हड-सा कहता, 'इसमें पाप कौन!'
 
हँसती सुन्दरता, 'अपना-अपना दृष्टिकोण'
 
चेतना भीत भी पिये प्रीति की सुरा-शोण
 
दीपक-सी डोल रही थी
 
 
 
पल में विद्युत्-सा कौंध गया निशि का प्रसंग
 
वह छद्म प्रात का ढंग, अचानक स्वप्न-भंग
 
नख-शिखु तनु में व्यापी जैसे ज्वाला-तरंग
 
रक्ताभ नयन, आनन पर क्षण-क्षण चढ़ा रंग  
 
अपमान, घृणा, पीड़ा का
 
 
 
'मैं क्षीणकाय, नि:संबल, निर्बल, संन्यासी
 
तुम बज्रायुध , स्वर्गाधिप, नंदन  के वासी
 
इस पर भी बुझी न तृषा तुम्हारी सुरसा-सी
 
कर गए मलिन चोरी से घर आ, मधुहासी--
 
यह सुमन स्नेह-क्रीडा का
 
. . .
 
धिक् सुरपति! जिस पर लुब्ध बने सुर-सदन-त्याग
 
तुम आये इस निर्जन में वही सहस्र-भाग
 
अंगों में होगी व्याप्त तुम्हारे ज्यों दवाग
 
यह अयश-कालिमा ले सिर पर, चिर-मलिन काग
 
तुम भटकोगे त्रिभुवन में!
 
  
 
मुड़कर देखा सहसा पत्नी मुख-छवि विवर्ण
 
नयनों की झर-झर व्यथा, मर्म-लज्जा अवर्ण्य
 
पतझर की एकाकिनी लता ज्यों शेषपर्ण--
 
जीवन-भिक्षा को, भय-कंपित आपाद-कर्ण   
 
धूसर अंचल फैलाए
 
 
 
तड़पा अंतर करुणा-ममता-आक्रोश-विकल
 
मुनि रहे आत्म-कातरता में जलते, निष्फल
 
फैला कपोल पर दोषी पलकों का काजल
 
नारी की दुर्बलता का साक्षी-सा प्रतिपल
 
कहता था अमित कथाएँ
 
 
 
जीवन विषमय कर गयी हृदय की क्षणिक चूक
 
मन काँप उठा सुख का सपना पा टूक-टूक
 
पल में कैसा यह मन्त्र काम ने दिया फूँक
 
लज्जा-भय-च्युत नारीत्व लुटा जैसे मधूक
 
वंचक मधुपायी-कर से 
 
 
 
कुंचित भौंहों पर  झलकी चल ज्वाला-तरंग
 
'स्वामी! अपराध क्षमा,' कहती-सी दृष्टि-संग
 
चरणों पर पति के गिरी अहल्या शिथिल-अंग
 
मुनिचीख उठ--'पाषाणी! यह क्या क्रूर व्यंग्य
 
विष पी डर रही लहर से?
 
. . .
 
सूना कुटीर, आश्रम में उड़ता पवन पीत
 
पतझर-झंझागम-विटप काँपने लगे सभीत
 
पल में सूखी जैसे जीवन-धारा पुनीत
 
रह गयी गौतमी शिला-सदृश सुखदुखातीत
 
निज भाग्य अंक ले फूटे
 
 
 
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23:12, 18 जून 2010 का अवतरण


मैं कौन? कहाँ से तिर आयी हिम-कणिका-सी !
सम्मुख लहराती दृग के स्वप्न-यवनिका-सी
पितु! जननी मेरी कहाँ, नहीं स्मृति क्षणिका-सी
क्या मैं भी सुरपुर में उड़ जाऊँ गणिका-सी
देवों को, हाय! रिझाने?
. . .
 
मैं कली, सूँघ सब जिसे निमिष में दें उछाल?
मैं रत्न कि रख लें जिसको युग-युग तक सँभाल?
मैं  जीवन-तरु का मूल कि उसका आल-बाल?
मैं विष की प्याली हूँ कि अमृत से भरा थाल?
हे वृद्ध पितामह! बोलो
. . .
जो प्रेम अमर मुझको छूकर वह मलिन दीन
कैसी मृण्मयता यह हिरण्य भी मूल्य-हीन?
जो शक्ति पुरुष की, दुर्बलता मेरी वही न!
मैं तिल-तिल मिटकर हो जाऊँ तम में विलीन
हा! क्रूर लेखनी रोको!

यह मुझे देखता कौन वृद्ध तापस सरोष
जैसे कर बैठी मैं कोई गम्भीर दोष?
क्या रहूँ भाँवरी भरती इसकी मन मसोस?
मैं कमल-पत्र पर, पिटा प्रात की चटुल ओस
झंझा में मुझे न झोंको

हँस पड़े पितामह दुग्ध-धवल दाढ़ी समेट
बेटा! ललाट का लिखा कौन कब सका मेट!
मैं स्वयं कमल-धृत-बिंदु, सिन्धु से नहीं भेंट
इस महायंत्र को कब जाने किसने उमेठ
धर दिया शून्य सागर में?

'एकोऽहम् बहुस्याम' कब किसने मन्त्र बोल
नीरव अनंत में दिए कल्प दृग-कमल-खोल
मैं हार गया रचते-रचते शत-शत खगोल
दिखता न अंत, माया- छाया-सी रही डोल
लय-सर्जन लिए युग कर में
. . .
यह कमल नहीं अंगार, अपरिवर्तित जिस पर
मैं चिर अनादि- से एकाशन शासन-तत्पर
मुझसे तो अच्छे देव, मनुज हँसकर रोकर
सुख-दुःख में लेते जो नूतन आकृतियाँ धर
चढ़ जन्म-मरण-दोलों पर