'''सीथीयाई'''<br />रचनाकार : अलेक्सान्द्र ब्लोक<br /><br /><poem>माना तुम हो लाखों<br />लेकिन हम प्रचण्डधारा अटूट हैं<br />वेग हमारा रोक नहीं पाओगे<br />हम हैं सीथिआई<br /><br />सोचो रक्त एशिया अपना<br />सामूहिक भूखें वक्र बनाती हैं<br />अपनी भकुटी को<br /><br />धीमें धीमें शब्द तुम्हारे<br />अपने लिए मात्र घंटे-से<br />चाटुकर गर्हित दासों-सा है यूरोप तुम्हारा<br />मंगोल दलों से जिसे बचाता<br />पर्वताकार विस्तत अपार पौरुष अपना<br /><br />सदियों रोक षड्यन्त्रों को<br />तुमने हिम दरकन-सा<br />सुनी पुकारें अनहोनी अनजान कथा-सी<br />लिस्बन और मसीना की<br /><br />सदियों स्वन तुम्हारे सीमित थे पूरब तक<br />लूटा माल चुराये मोती छिपा लिया सब<br />धोका देकर घेरा हमको बन्दूकों से<br /><br />आ पहुँचा है समय<br />कयामत ने अपने डैने फैलाये<br />बहुत कर चुके तुम अपमानित<br />अब अपनी भकुटी तनती है<br />घंटा बजा कि हमने तोड़ा<br />अहं तुम्हारे का दुखदायी घेरा<br />ढेर लगाया दुर्बल पैस्तमों का<br /><br />अत:वद्ध जग ठहरो<br />वरना जो अन्तिम आशा है<br />उसका अन्त निकट है<br />लो प्रज्ञा से काम<br />तुम्हारे चमत्कार अब श्रान्त-क्लान्त है<br />वद्ध ईडिपस<br />स्फिंक्स खड़ा हैअब भी<br />इसके सम्मुख आओ<br />पढो द्गों में गूढ पहेली<br /><br /><poem>'''रमेश कौशिक द्वारा अंग्रेजी से अनुवादितअनुवाद : रमेश कौशिक'''<poem>