"दुआरे रामदुलारी / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर
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+ | गोबर-गोइंठा पाथती | ||
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+ | रामदुलारी राजी-खुशी निखार रही है | ||
+ | अपने रामपियारे की गृहस्थी | ||
+ | और खुशफ़हमी पाल रही है | ||
+ | खेत-खलिहानों में गुल्ली-डंडा खेलते | ||
+ | अपने वानर-सरीखे बच्चों की | ||
+ | किस्मत संवारने की, | ||
+ | उन्हें बाबूसाहेबों के बच्चों जैसा | ||
+ | होनहार-वीरवान बनाने की | ||
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+ | सत्ताईस सालों पहले | ||
+ | जब सजी-संवरी रामदुलारी | ||
+ | सपनों की गठरी लिए अपने पीहर आई थी | ||
+ | और आन्खों में लबालब शर्म और | ||
+ | होठो पर छलकती मुस्कान की गगरी लाई थी, | ||
+ | उसने अपनी किलकारी-फिसकारी सब | ||
+ | घर की खुशी की वेदी पर चढा दिए, | ||
+ | उसके हाथों में गज़ब के कौशल थे | ||
+ | यों तो वह अंगूठा-छाप थी | ||
+ | लेकिन, उसके बनाए बाटी-चोखे | ||
+ | भाजी, भात और भुर्ते | ||
+ | पूरे गांव में लोकप्रिय थे, | ||
+ | सनई की सुतली और बांस की फत्तियों से बने | ||
+ | पंखों, दोनों, चिक, चटाइयों और गुलदस्तों की नुमाइश | ||
+ | सासू मां टोले-भर लगा आती थी, | ||
+ | फटी-पुरानी धोतियों से बनी | ||
+ | उसकी चमचमाती कथरी और ओढनी | ||
+ | जो बाहर पडी खटिया पर | ||
+ | टंगी रहती थी | ||
+ | अकसर पडोसियों को | ||
+ | चोर-उचक्का तक बना देती थी |
11:31, 23 जून 2010 का अवतरण
दुआरे रामदुलारी
सत्ताईस सालों से
गोबर-गोइंठा पाथती
चौका-बेलन सम्हालती
रामदुलारी राजी-खुशी निखार रही है
अपने रामपियारे की गृहस्थी
और खुशफ़हमी पाल रही है
खेत-खलिहानों में गुल्ली-डंडा खेलते
अपने वानर-सरीखे बच्चों की
किस्मत संवारने की,
उन्हें बाबूसाहेबों के बच्चों जैसा
होनहार-वीरवान बनाने की
सत्ताईस सालों पहले
जब सजी-संवरी रामदुलारी
सपनों की गठरी लिए अपने पीहर आई थी
और आन्खों में लबालब शर्म और
होठो पर छलकती मुस्कान की गगरी लाई थी,
उसने अपनी किलकारी-फिसकारी सब
घर की खुशी की वेदी पर चढा दिए,
उसके हाथों में गज़ब के कौशल थे
यों तो वह अंगूठा-छाप थी
लेकिन, उसके बनाए बाटी-चोखे
भाजी, भात और भुर्ते
पूरे गांव में लोकप्रिय थे,
सनई की सुतली और बांस की फत्तियों से बने
पंखों, दोनों, चिक, चटाइयों और गुलदस्तों की नुमाइश
सासू मां टोले-भर लगा आती थी,
फटी-पुरानी धोतियों से बनी
उसकी चमचमाती कथरी और ओढनी
जो बाहर पडी खटिया पर
टंगी रहती थी
अकसर पडोसियों को
चोर-उचक्का तक बना देती थी