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छाँह में झुलसे जले / कविता वाचक्नवी
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14:20, 25 जून 2010
वर्तनी व फ़ॉर्मेट सुधार
झुलसे जले -
:::साथ सोए स्वप्न को
:::पल-पल झिंझोड़ा
,
:::देखा
:::
उनींदी आँख से
,
:
:::::औ’ सकपकाए।
बाँह धर कर
:::::स्वप्न हूँ
:::::मत आँख खोलो।
कल्पदर्शी चक्षु का
Kvachaknavee
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