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16:24, 26 जून 2010 का अवतरण
एक बज गया
सोई होगी तुम निश्चय ही
- ओका जैसी
जल्दी क्या है मैं न् जगाऊंगा तुमको
सर-दर्द न् दूंगा
तुरत-तार देकर के तुमकोस्वपन न् कोई भंग करूँगा
जैसा वे कहते हैं
खत्म कहानी यहीं हो गयी
नाव प्रेम की
जीवन-चट्टानों से टकरा कर चूर हो गयी
अब हम स्वतंत्र हैं
आपस के अपमान व्यथा आघातों की
नहीं ज़रूरत है कोई फहरिस्त बनाने की
देखो सारा जग शांत हुआ है तारों के उपहार तले
नभ को निशि ने सुला दिया है
ऐसे पहर जगा है कोई
युग इतिहास विश्व को
संबोधित करने को .
- ओका : वोल्गा की सहायक नदी
( रमेश कौशिक द्वारा अनूदित संग्रह से : एक सौ एक सोवियत कविताएँ)