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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक : पढ़ेगी जब तलक दुनिया लिखा दीवान ग़ालिब का<br>
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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक : घमासान हो रहा<br>
&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[मधुभूषण शर्मा 'मधुर']]</td>
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&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[भारतेन्दु मिश्र]]</td>
 
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पढ़ेगी जब तलक दुनिया लिखा दीवान ग़ालिब का
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आसमान लाल-लाल हो रहा
बढ़ेगा और भी रुतबा अज़ीमुश्शान ग़ालिब का
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धरती पर घमासान हो रहा।
  
लगा सकता नहीं कोई कभी कीमत यहाँ उसकी
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हरियाली खोई है
जो घर से बाद मरने के मिला सामान ग़ालिब का
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नदी कहीं सोई है
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फसलों पर फिर किसान रो रहा।
  
जुआरी मस्त बादाकश-सा शायर तो दिखा सब को
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सुख की आशाओं पर
कि कोई कद्र-दाँ ही फ़न सका पहचान ग़ालिब का
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खंडित सीमाओं पर
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सिपाही लहूलुहान सो रहा।
  
गली कोठों मुहल्लों के झरोखे आज तक पूछें
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चिनगी के बीज लिए
चुका पाएगी क्या दिल्ली कभी एहसान ग़ालिब का
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विदेशी तमीज लिए
 
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परदेसी यहाँ धान बो रहा।
शराबो-कर्ज़ में ड़ूबे करें अशयार दीवाना
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कि प्यासा रह नहीं सकता कभी मेहमान ग़ालिब का
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ज़रा बादल गुज़रने दो दिखाई चाँद तब देगा
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नहीं मतलब समझ पाना रहा आसान ग़ालिब का
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न कहिए यह कि तू क्या है ये अंदाज़े-अदावत है
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ख़फ़ा इस गुफ़्तगू से है दिले-नादान ग़ालिब का
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नहीं थी हाथ को जुंबिश तो ये आँखों का ही दम था रहा
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पाँओं की लग्ज़िश से बचा ईमान ग़ालिब का
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है लाया रंग सचमुच शोख़ फ़ाक़ामस्त वो पैकर
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न हो बेआबरू पाया ‘मधुर’ ऐलान ग़ालिब का
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13:14, 2 जुलाई 2010 का अवतरण

Lotus-48x48.png  सप्ताह की कविता   शीर्षक : घमासान हो रहा
  रचनाकार: भारतेन्दु मिश्र
आसमान लाल-लाल हो रहा
धरती पर घमासान हो रहा।

हरियाली खोई है
नदी कहीं सोई है
फसलों पर फिर किसान रो रहा।

सुख की आशाओं पर
खंडित सीमाओं पर
सिपाही लहूलुहान सो रहा। 

चिनगी के बीज लिए
विदेशी तमीज लिए
परदेसी यहाँ धान बो रहा।