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12:08, 4 जुलाई 2010 के समय का अवतरण
ख़यालों में डूबे
वक़्त की सियाही में
क़लम को अपनी डुबोकर
आकाश को रोशन कर दिया था मैंने
और यह लहराते,
घूमते -फिरते, बहकते
बेफ़िक्र से आसमानी पन्ने
न जाने कब चुपचाप
आ के छुप गए
क़लम के सीने में।
नज़्में उतरीं तो उतरती ही गईं मुझमें
आयते उभरीं
तो उभरती ही गईं तुम तक।
आँखें उट्ठीं तो देखा
क़ायनात जल रही थी।
जब ये झुकीं
तो तुम थे और कुछ भी नहीं।