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09:08, 7 जुलाई 2010 के समय का अवतरण
माँ का पेट ढीला पड़ गया है मानो वहाँ समुद्र की कोई लहर आकर बैठ गयी हो। मैं दूर तक फैली इस लहर में गोते लगाता हूँ, भीगता हूँ और माँ को अपनी ओर मुस्कराते देखता हूँ। नानी को यह पसन्द नहीं है। वह बार-बार मुझे किनारे पर बुलाती है। इस सब से बेखबर नाना हर शाम मुझे पार्क ले जाते हैं। मैं घनी झाड़ियों में छिपकर नाना के चेहरे पर उम्र की गहराती छाया देखता हूँ।
पिता की विदाई के बाद समुद्र की लहर समुद्र लौट जाती है। माँ की गोद में फैली बालू में मेरे पैरों के निषान भरना शुरू हो जाते हैं।