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"मैं रहा तो था / व्योमेश शुक्ल" के अवतरणों में अंतर

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09:19, 7 जुलाई 2010 के समय का अवतरण

साफ़ झूठ

शिकायतें वक़्त से भी तेज़ गुज़र रही हैं ख़ुद को तुम्हारी मुस्कराहट से बदलती हुईं
उनकी फ़ेहरिस्त में कई शब्द आ गए हैं कई ग़ैर शब्द
आगामी शिकायतों का संगीत
उन्हें लिखना स्वरलिपियाँ लिखना

और कोई चुपके-चुपके लगा रहता है कि अपनी महान हिन्दी भाषा में कुछ वाक्य लिख ले

अरे महोदय, कितना पेट्रोल और पसीना बहता है ये सब करने में - उसका हिसाब लिखने में मन लगाओ, यही कर्त्तव्य है और तुम इसी के लायक़ भी हो। उनके कमरे में खिड़की खोलने से क्या फ़ायदा? अपने ख़त्म होते अनुभवों पर भरोसा रखो। ताकाझाँकी जैसी चालाकियाँ कुछ समय बाद शोभा देंगी। अभी तो तुम्हारे साफ़ झूठ में भी उसकी सच्ची हँसी की आहट है।

उस शहर की उस गली में

... कि तभी उस शहर की उस गली में उसके नाम का साइनबोर्ड दिखा। उस जैसा। बिलकुल उस जैसा और लगभग उस जैसा। उसके पसीने की बरसात में भीगा हुआ-सा। उसके चेहरे की धूप में चमकता हुआ-सा। उसको देखने-सा। उसके देखने-सा। उसकी चमक के ख़िलाफ़ धुँधला होता हुआ-सा। उसकी ज़बान जितनी ग़लत भाषा में लिखा हुआ। सबको दिखता हुआ-सा। हालाँकि देखने पर वहाँ सिर्फ़ ढाई अक्षर दिखाई देते हैं।

गुज़रना

इतनी बीहड़ क्रूरता के साथ बसे देश में सिर्फ़ तुम्हारे घर के नीचे, अफ़सोस, कभी ट्रैफ़िक जाम नहीं लगता जिसमें फँसा जा सके। वहाँ से ख़याल की तरह गुज़रना होता है।

दोनों एक ही बातें हैं

ऋतुओं के विहँसते सूर्य की तरह, दोपहर की झपकी की तरह, गर्भ की तरह, प्यास या ख़ास तुम्हारी शर्म की तरह, क्रूरतम अप्रैल में मई के आगमन की तरह

मैं रहा तो था

थकान की तरह मोज़ों के पसीने में तुम्हारे, वर्तनी की भूलों में, क्रियापदों के साथ लिंग के लड़खड़ाते रिश्ते में। तुम्हारी नाराज़गी में - ख़ुद को न देख पाता हुआ या सिर्फ़
ख़ुद को देखता हुआ या दोनों एक ही बाते हैं।

एक दिन

बृहस्पतिवार - तुम काजल लगा के नहीं आई थी। (उस दिन अपनी पेशी के दौरान नरेन्द्र मोदी ने कई झूठ बोले और कई धमकियाँ दीं।)

अब हो

आज मैंने मसलन बी.ए. पास कर लिया। आज मैं श्यामसुंदरदास बी.ए.। उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशकों में अपनी शिशुभाषा का पाठ्यक्रम बनाने वाला और एक भारी-भरकम बवालिया संस्था का निर्माता मैं आज। तीस साल का होने के तीन महीने पहले वह अगर ऐसे ही नाहक़ नाराज़ हो जैसे आज मुझसे हुई है तो तुम भी संस्थापक, प्रधानमंत्री या रूलिंग पार्टी के जनरल सेक्रेटरी हो सकते हो। ख़ैर, मेरी फ़िक्र न करो और आगे से मत डराओ। आगे तो तय है कि बहुत सा अपमान और उचाट है। बहुत सा पीछे है आगे। ख़ात्मा है आगे।

अब हो।

एक और दिन

शुक्रवार - फिर नहीं । ( आज सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस महानुभाव ने तमाम गुज़ारिशों के बावजूद मोदी के साथ मंच शेयर किया )

क्यों

इतने ग़ौर से क्यों सुनती हो तुम आँखों से क्यों सुनती हो?

या शायद

मैंने सोचा कि उनको या कहूंगा और सोचने लगूंगा कि इस चीज़ का नाम अब तक क्या रहा था और जानकर हैरान हो जाऊंगा कि जितनी आवाज़ें हैं उतने तो नाम हैं इसके और शायद इसे या भी बार-बार कहा गया होगा तो इसका एक नाम शायद भी हो सकता है और इसे कई बार कुछ नहीं कहा गया है तो इसका एक नाम कुछ नहीं या कुछ हो सकता है।

कुछ हो सकता है तो कुछ भी हो सकता है। एक फूल खिल सकता है नाम देने के लिए। बहुत से फूलों के बीच एक फूल। दूसरे फूल दूसरों के नाम के लिये। ये फूल उन निगाहों का नाम हो सकता है।

कुछ भी हो सकता है कुछ नहीं भी हो सकता है। उनको देखने लिये उनकी ओर देखना पड़ सकता है और यह तो अक्सर होता है कि उनको देखने के लिए उनकी ओर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ती।

यह उलझन दूर तक जा सकती है और यह उलझन बीच में ही ख़त्म हो सकती है ।

कुछ हो सकता है तो कुछ भी हो सकता है

जब कुछ भी हो सकता है तो तुम भी कुछ भूल सकती हो। तुम जानबूझकर या भूल से भी भूल सकती हो काजल लगाना। यों उस महान क्रिया का जन्म होता है जिसका नाम है काजल लगाना भूलना।

चुप हो जाने के लिए

जब जीवन में बहुत से अंक हासिल करने का शोर मचा हुआ था, तुम उसमें कैसा तो अनाप-शनाप संगीत सुनने में लग गई, शोर के भीतर का संगीत, शोर की बेक़ाबू साँस का संगीत, शोर का उल्टा संगीत। तुम नहीं जानती कि ऐसे सुनने ने शोर को कितना नामुमकिन कर दिया है। सबसे ज़्यादा नुक़सान मेरा हुआ, मेरी शोर मचाती कविताओं का। उन्हें भी संगीत की तरह सुनोगी तुम, यह एहसास ही काफ़ी है चुप हो जाने के लिये।

धूप नहीं

धूप की कालीन बिछी थी और तुम्हारे उस पर से गुज़रने भर से वह सिर्फ़ धूप की कालीन नहीं रह गई। विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ के पन्नों पर एक साथ उगे दो सूर्य सिर्फ़ पन्नों पर नहीं उगे थे। मैंने देखा उस सूर्य को तुम्हारे चेहरे पर और तुम्हारे चेहरे के सूरज को वहाँ उगते हुए।

पार

देशभक्ति का कालजयी नाटक पढ़ते हुए हमारी आँखें मिलीं और तुम्हें पता ही नहीं। हद है। शब्दों और वाक्यों को आईने की तरह इस्तेमाल करते हुए मैंने उस चीज़ को देखा जिसे बोलचाल की भाषा में राष्ट्रप्रेम वगैरह कह दिया जाता है।

वे तुम्हारी आँखें थीं राष्ट्र के पार देखती हुईं। तुमको नहीं पता था तुम्हारी आँखों को पता था मेरी आँखों का। तुमको नहीं पता था तुम्हारी आँखों को पता था कि न देखते हुए कैसे देखा जाता है?

सपना

कलाई में दिल की धड़कन थी बायप्सी की रिपोर्ट में दाँत दर्द का अनुवाद कैंसर किया गया था नींद बहुत लम्बे-लम्बे वाक्यों में जागने का सपना थी सारी थकान एक बहुत चुस्त चालाकी में बदली हुई थी शरीर आत्मा पर फ़िदा हुआ जा रहा था सारे दुश्मन दोस्त हो गए थे सभी स्पर्शों की गिनती और सारे स्विच ऑफ़ मोबाइल फ़ोनों के नंबर याद हो गए थे जिस नदी को इस पार से उस पार तक सत्तर धोतियों से बाँधा जाता था वह अब दस धोतियों में पूरी हो जाती थी

हम ख़ुद से शर्माए जा रहे थे और आज इसका कितना शिद्दत से अफ़सोस था कि लोरी लिखना नहीं आता और एक ग़ैर निबंधात्मक प्रेमपत्र भी लिखना हुआ तो असलियत सामने आ जायेगी.

यहाँ

पीले पन्नों वाली किताब में छपी बच्चा कविता में से निकलकर आया था मामू मौसम के बिल्कुल पहले आम लेकर.
मामू सरकारी कर्मचारी है
वह आया तो सरकार आयी हमारी हैसियत भर की
और नींद में उसकी आवाज़ उसकी आवाज़ का सप्तक उसकी तक़लीफ़ उसका रिटायरमेंट उसकी पेंशन उसके लड़के का पैकेज
इन सभी मुद्दों पर अम्मा की हाँ-हूँ

मामू जगाता नहीं
और कौन जागना चाहता है इस छंदमय जगनींद से उस जागरण में

वहाँ सिर्फ़ तुम हो और तुम हो और तुम हो

और यहाँ भी