"मुक्ति की छटपटाहट / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= मनोज श्रीवास्तव |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> ''' मुक्ति क…) |
|||
पंक्ति 8: | पंक्ति 8: | ||
''' मुक्ति की छटपटाहट ''' | ''' मुक्ति की छटपटाहट ''' | ||
+ | |||
+ | बीहड़ जंगल की शक्ल ल रहे | ||
+ | इस खौफज़दा शहर में | ||
+ | चलते-फिरते पेड़-सरीखी | ||
+ | मोटरगाड़ियों के दरम्यान | ||
+ | जिस्म से रूह तक | ||
+ | झन्ना देने वाले | ||
+ | शोर-शराबों | ||
+ | धूम्रपातों | ||
+ | से भयार्द्र मैं | ||
+ | एक निहायत मायूस गीदड़ हूँ | ||
+ | |||
+ | गुर्राते शेरों के | ||
+ | अभेद्य घेरों में | ||
+ | बिंध कर | ||
+ | मुझे बार-बार | ||
+ | अपने निरीह दिल का | ||
+ | कर्ण-स्फोटक | ||
+ | धक् धक् धक् | ||
+ | सुनाई देता है, | ||
+ | मैं इस धकधकाहट | ||
+ | और हकबकाहट को | ||
+ | देह के भीतर ही | ||
+ | दबोच लेना चाहता हूँ, | ||
+ | देह के दरवाजों-खिड़कियों को | ||
+ | फटाक फटाक | ||
+ | साउंड-प्रूफ बंद कर देना चाहता हूँ, | ||
+ | पशेमां हुए दिल की | ||
+ | द्रावक कराह को | ||
+ | कच्चा चबा-चबा | ||
+ | निगल जाना चाहता हूँ, | ||
+ | कराह का एक कतरा भी | ||
+ | बाहर टपकाना नहीं चाहता हूँ, | ||
+ | अन्यथा | ||
+ | टोहियों का निर्मम जत्था | ||
+ | मुझ पर टूट पड़ेगा, | ||
+ | इस मिमियाते मेमने की | ||
+ | बोटी-बोटी नोच डालेगा-- | ||
+ | इस शहर के | ||
+ | भेड़ियाई पंजों का | ||
+ | निरंकुश झपट्टा | ||
+ | |||
+ | मैं चिड़ियाघर के | ||
+ | बंद पिंजरें में | ||
+ | यंत्रणा-प्रताड़नाग्रस्त | ||
+ | नकेल-पड़े | ||
+ | नुमाइशी जानवर की तरह | ||
+ | इंसानी दया-दान के वास्ते | ||
+ | रिरियाने-घिघियाने लगा हूँ | ||
+ | गोकि | ||
+ | मुझे एहसास है कि | ||
+ | सड़कों पर | ||
+ | बसों व गाड़ियों में | ||
+ | घर से कार्यक्षेत्र तक मैं | ||
+ | एक यांत्रिक व्यस्त जीव हूँ | ||
+ | जिसे बिलावज़ह | ||
+ | इलेक्ट्रिक व्हिप से | ||
+ | आदेशित, अनुशासित, नियंत्रित | ||
+ | करने की कोशिश की जाती है | ||
+ | |||
+ | फिर भी | ||
+ | मैं सतत | ||
+ | प्रार्थना करता जा रहा हूँ | ||
+ | कि काश! | ||
+ | कोई सहृदय आदमी अवतरित हो | ||
+ | और मुझको | ||
+ | इस पिंजरे से मुक्त कराए | ||
+ | मेरे कानों में मुंह डालकर | ||
+ | प्यार-दुलार करे | ||
+ | मेरी पीठ सहलाए | ||
+ | मुझे अनवरत पुचकारे | ||
+ | मुझे बांहों में समेटकर | ||
+ | उठाए, हवा में उछाले | ||
+ | और लपककर | ||
+ | अपनी स्नेह-सनी अँगुलियों से | ||
+ | मेरे नरम खरगोशी बालों को | ||
+ | उलझाए | ||
+ | गुलझाए | ||
+ | सुलझाए | ||
+ | |||
+ | मैं आदमकद जानवरों के | ||
+ | कुकुरमुत्ताई शहरों से | ||
+ | आज़ाद हो आसमान में | ||
+ | स्वच्छंद फुर्र फुर्र | ||
+ | उड़ जाना चाहता हूँ | ||
+ | बहेलियों की खौफ से | ||
+ | दूर, बहुत दूर | ||
+ | वृत्ताकार क्षितिज के पार | ||
+ | |||
+ | मेरे वश में नहीं है | ||
+ | स्व-विवेक से सोचना-समझना | ||
+ | आत्मनिर्णय से क्रिया-प्रतिक्रिया करना | ||
+ | सलीके से शरीर को संयमित करना | ||
+ | इसलिए | ||
+ | और इसीलिए | ||
+ | मैं घस घस घसीटा जा रहा हूँ | ||
+ | गले पड़ी कांटेदार | ||
+ | जंजीर की | ||
+ | खिंचाव की दिशा में | ||
+ | बेतहाशा भागता जा रहा हूँ | ||
+ | मैं--बेचारा पालतू कुत्ता | ||
+ | |||
+ | यह जंगल | ||
+ | बहुत गर्म है | ||
+ | वहशियाना तहज़ीब के | ||
+ | दावानल से | ||
+ | धूं-धूं कर जल रहा है | ||
+ | ज़हरीली डकार छोड़ रहा है | ||
+ | अवैध टपकते | ||
+ | रज और बीज की सड़ांध से | ||
+ | गन्हा रहा है | ||
+ | |||
+ | और मैं | ||
+ | समय की दहकती रेत पर | ||
+ | मक्के के लावे जैसा | ||
+ | पड़पड़ाने | ||
+ | बजबजाने | ||
+ | के लिए | ||
+ | छोड़ दिया गया हूँ | ||
+ | जहां से | ||
+ | मैं निष्फल यत्न कर | ||
+ | कुलांचे मार | ||
+ | ठंडे सरोवर ताल पर | ||
+ | पहुँच जाना चाहता हूँ, | ||
+ | मैं लाचार, निरुपाय मछली | ||
+ | जलपरियों संग | ||
+ | जल-लोक में | ||
+ | समा जाना चाहता हूँ. |
16:53, 12 जुलाई 2010 का अवतरण
मुक्ति की छटपटाहट
बीहड़ जंगल की शक्ल ल रहे
इस खौफज़दा शहर में
चलते-फिरते पेड़-सरीखी
मोटरगाड़ियों के दरम्यान
जिस्म से रूह तक
झन्ना देने वाले
शोर-शराबों
धूम्रपातों
से भयार्द्र मैं
एक निहायत मायूस गीदड़ हूँ
गुर्राते शेरों के
अभेद्य घेरों में
बिंध कर
मुझे बार-बार
अपने निरीह दिल का
कर्ण-स्फोटक
धक् धक् धक्
सुनाई देता है,
मैं इस धकधकाहट
और हकबकाहट को
देह के भीतर ही
दबोच लेना चाहता हूँ,
देह के दरवाजों-खिड़कियों को
फटाक फटाक
साउंड-प्रूफ बंद कर देना चाहता हूँ,
पशेमां हुए दिल की
द्रावक कराह को
कच्चा चबा-चबा
निगल जाना चाहता हूँ,
कराह का एक कतरा भी
बाहर टपकाना नहीं चाहता हूँ,
अन्यथा
टोहियों का निर्मम जत्था
मुझ पर टूट पड़ेगा,
इस मिमियाते मेमने की
बोटी-बोटी नोच डालेगा--
इस शहर के
भेड़ियाई पंजों का
निरंकुश झपट्टा
मैं चिड़ियाघर के
बंद पिंजरें में
यंत्रणा-प्रताड़नाग्रस्त
नकेल-पड़े
नुमाइशी जानवर की तरह
इंसानी दया-दान के वास्ते
रिरियाने-घिघियाने लगा हूँ
गोकि
मुझे एहसास है कि
सड़कों पर
बसों व गाड़ियों में
घर से कार्यक्षेत्र तक मैं
एक यांत्रिक व्यस्त जीव हूँ
जिसे बिलावज़ह
इलेक्ट्रिक व्हिप से
आदेशित, अनुशासित, नियंत्रित
करने की कोशिश की जाती है
फिर भी
मैं सतत
प्रार्थना करता जा रहा हूँ
कि काश!
कोई सहृदय आदमी अवतरित हो
और मुझको
इस पिंजरे से मुक्त कराए
मेरे कानों में मुंह डालकर
प्यार-दुलार करे
मेरी पीठ सहलाए
मुझे अनवरत पुचकारे
मुझे बांहों में समेटकर
उठाए, हवा में उछाले
और लपककर
अपनी स्नेह-सनी अँगुलियों से
मेरे नरम खरगोशी बालों को
उलझाए
गुलझाए
सुलझाए
मैं आदमकद जानवरों के
कुकुरमुत्ताई शहरों से
आज़ाद हो आसमान में
स्वच्छंद फुर्र फुर्र
उड़ जाना चाहता हूँ
बहेलियों की खौफ से
दूर, बहुत दूर
वृत्ताकार क्षितिज के पार
मेरे वश में नहीं है
स्व-विवेक से सोचना-समझना
आत्मनिर्णय से क्रिया-प्रतिक्रिया करना
सलीके से शरीर को संयमित करना
इसलिए
और इसीलिए
मैं घस घस घसीटा जा रहा हूँ
गले पड़ी कांटेदार
जंजीर की
खिंचाव की दिशा में
बेतहाशा भागता जा रहा हूँ
मैं--बेचारा पालतू कुत्ता
यह जंगल
बहुत गर्म है
वहशियाना तहज़ीब के
दावानल से
धूं-धूं कर जल रहा है
ज़हरीली डकार छोड़ रहा है
अवैध टपकते
रज और बीज की सड़ांध से
गन्हा रहा है
और मैं
समय की दहकती रेत पर
मक्के के लावे जैसा
पड़पड़ाने
बजबजाने
के लिए
छोड़ दिया गया हूँ
जहां से
मैं निष्फल यत्न कर
कुलांचे मार
ठंडे सरोवर ताल पर
पहुँच जाना चाहता हूँ,
मैं लाचार, निरुपाय मछली
जलपरियों संग
जल-लोक में
समा जाना चाहता हूँ.