भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"वातावरण / त्रिलोचन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=त्रिलोचन |संग्रह=अरघान / त्रिलोचन }} {{KKCatKavita‎}} <poem> सा…)
 
 
पंक्ति 32: पंक्ति 32:
  
 
बाँहें इधर उधर फैलाए राह में
 
बाँहें इधर उधर फैलाए राह में
अत्र तत्र सर्वत्र शीत का जोर है ।
+
अत्र तत्र सर्वत्र शीत का ज़ोर है ।
 
</poem>
 
</poem>

21:36, 12 जुलाई 2010 के समय का अवतरण

साँझ गुलाबी काँप रही है ठंड से,
उधर गुलाबों के पौधे लाचार हैं
झूल झूल कर फूल हवा से कह रहे
हैं यह, इतनी, छेड़छाड़ अच्छी नहीं ।

काँप रहे हैं पेड़, तृणों की बात क्या
यहाँ चलाई जाय । सुदूर दिगंत में
मेघ-खंड सहसा उद्भासित हो गए,
सूर्य क्षितिज को सूना करके देर का

चला गया । हलकी आभा आकाश की
क्रमशः हलकी हो कर नभ की नीलिमा
को गहराती चली । नीलिमा क्या हुई,
यह, इतनी, श्यामता कहाँ थी जो यहाँ

से धीरे धीरे सारे संसार में
फैल गई । धूमाच्छादित हैं वृक्ष वे,
टहनी टहनी डाली डाली थाम के
धुआँ और ऊपर चढ़ता है, गंध से

वातावरण बसा है, जनपथ पुत गया
बिजली की आभा से । कुहरा क्षीण है,
अस्ति नास्ति के बीच । लोग आ जा रहे
पैदल या सवारियों से, आवाज़ की

बाँहें इधर उधर फैलाए राह में
अत्र तत्र सर्वत्र शीत का ज़ोर है ।