भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दिन-रात बसर करते हैं--गज़ल / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= मनोज श्रीवास्तव |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> '''दिन-रात बस…)
 
पंक्ति 14: पंक्ति 14:
 
लोग उन्हें बेज़ुबान कहते हैं  
 
लोग उन्हें बेज़ुबान कहते हैं  
  
जिनकी रुस्वाइयाँ मैने पचाई थक-छक कर  
+
जिनकी सरशोरियाँ मैने पचाई थक-छक कर  
 
वो मुझे पीकदान कहते हैं  
 
वो मुझे पीकदान कहते हैं  
  

14:35, 13 जुलाई 2010 का अवतरण

दिन-रात बसर करते हैं--गज़ल

जो मेरे साथ दिन-रात बसर करते हैं
लोग उन्हें मेहमान कहते हैं

जिनके लफ्ज़ों से मेरी रूह के कतरे बिखरे
लोग उन्हें बेज़ुबान कहते हैं

जिनकी सरशोरियाँ मैने पचाई थक-छक कर
वो मुझे पीकदान कहते हैं

जिनकी राहों से कांटे बटोरे चुन-चुन कर
वो मुझे कूड़ादान कहते हैं

जिनके अस्मत को सींचा खुद लाहु के चश्मों से
वो इसे रक्त-दान कहते हैं