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"व्यर्थ लड़ गया / त्रिलोचन" के अवतरणों में अंतर

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19:53, 20 जुलाई 2010 का अवतरण

शंकर, शंकर, शंकर, यह तो नहीं बोलता ।
यह क्या, किस के ऊपर मेरा पाँव पड़ गया ।
बड़ा पसीना छूट रहा है, बटन खोलता,
यदि थोड़ा फोंफर पा जाता । व्यर्थ लड़ गया
पास खड़े मुर्दों से । वह आवेश झड़ गया ।
धक्के आकर इधर उधर कुछ ठेल रहे हैं ।
मेरे पाँवों को यह किसका पेट गड़ गया ।
भीड़ नहीं है, दल राक्षस के खेल रहे हैं ।
चरणों के आघात अभागे झेल रहे हैं ।
आग, फेफड़े फड़क रहे हैं, हवा कहाँ है ।
छूटी भूमि, भयानक धक्के रेल रहे हैं ।
अब कंधों पर हूँ, व्याकुलता यहाँ वहाँ है ।

प्राण बच गए, जीवन, तू कितना प्यारा है
हाथ, अदेख काल के आगे तू हारा है ।