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01:05, 28 जुलाई 2010 के समय का अवतरण
ज़िंदगी को पकड़ूँ
या अपनी समझ को
क्योंकि दोनों के बीच
मैंने जो रिश्ता
खींच-खींचकर बैठाया था
वह अब टूट रहा है ।
और उसकी पीठ पर टिका जो चैन था
वह बीच सड़क पर बिखर गया है
साइकिल के पीछे बँधे आटे की कनस्तर की तरह
और मैं सोच रहा हूँ कि
साइकिल छोड़कर बिखरा आटा समेटूँ या
-- पर मारो गोली
साइकिल तो रूपक है
बात तो चैन की है जो बिखर गया है ।