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बीच-बीच की
ये मुलाक़ातें
मेरी उम्र के पन्नों पर ऐसे ही सजी हैं
जैसे बच्चे अपनी पोथी में
चमकीली पन्नी
साँप की केंचुल
और फूल की पँखुरियाँ रखते हैं ।
प्यार ?
सच क्या वह ललक ही प्यार है ?
तो फिर उसको क्या कहते हैं
जो अनजाने अँधेरे में
भीतरी तहों में पहुँच जाता है
और हरेक छिद्र को रस में भर देता है ।
इस बार मिलोगी तो पूछूँगा !
रचनाकाल : 10 फ़रवरी 1967