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+ | और लोहे की ये लंकाएँ | ||
+ | कहाँ है कैद तेरी कुम्भजा | ||
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+ | कौन देखेगा | ||
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+ | ये चितेरे | ||
+ | आलमारी में रखे दिन | ||
+ | और चिमनी से निकलती शाम। | ||
+ | सड़कवासी राम! | ||
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+ | पोर घिस घिस | ||
+ | क्या गिने चैदह बरस तू | ||
+ | गिन सके तो | ||
+ | कल्प साँसों के गिने जा | ||
+ | गिन कि | ||
+ | कितने काटकर फेंके गए हैं | ||
+ | ऐषणाओं के पहरूए | ||
+ | ये जटायु ही जटायु | ||
+ | और कोई भी नहीं | ||
+ | संकल्प का सौमित्र | ||
+ | अपनी धड़कनों के साथ | ||
+ | देख वामन सी बड़ी यह जिन्दगी | ||
+ | कर ली गई है | ||
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+ | सड़कवासी राम! | ||
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17:37, 14 अगस्त 2010 का अवतरण
सप्ताह की कविता | शीर्षक : सड़कवासी राम! रचनाकार: हरीश भादानी |
सड़कवासी राम! न तेरा था कभी न तेरा है कहीं रास्तों दर रास्तों पर पाँव के छापे लगाते ओ अहेरी खोलकर मन के किवाड़े सुन सुन कि सपने की किसी सम्भावना तक में नहीं तेरा अयोध्या धाम। सड़कवासी राम! सोच के सिर मौर ये दसियों दसानन और लोहे की ये लंकाएँ कहाँ है कैद तेरी कुम्भजा खोजता थक बोलता ही जा भले तू कौन देखेगा सुनेगा कौन तुझको ये चितेरे आलमारी में रखे दिन और चिमनी से निकलती शाम। सड़कवासी राम! पोर घिस घिस क्या गिने चैदह बरस तू गिन सके तो कल्प साँसों के गिने जा गिन कि कितने काटकर फेंके गए हैं ऐषणाओं के पहरूए ये जटायु ही जटायु और कोई भी नहीं संकल्प का सौमित्र अपनी धड़कनों के साथ देख वामन सी बड़ी यह जिन्दगी कर ली गई है इस शहर के जंगलों के नाम। सड़कवासी राम!