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"ख़ामोशी के ख़िलाफ़ / शाहिद अख़्तर" के अवतरणों में अंतर
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मदावा भी होगा | मदावा भी होगा | ||
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कुछ बोलो | कुछ बोलो | ||
कोई नारा, कोई सदा | कोई नारा, कोई सदा | ||
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02:42, 26 अगस्त 2010 के समय का अवतरण
गज़ा पट्टी पर इस्राइली हमले के खिलाफ़ लिखी गई कविता
दर्द हो तो
मदावा भी होगा
हमारी ख़ामोशी
ज़ुर्म होगी
अपने खिलाफ़
और हम भुगत रहे हैं
इसकी ही सज़ा
लब खोलो
कुछ बोलो
कोई नारा, कोई सदा
उछालो ज़ुल्मत की इस रात में
आवाज़ों के बम और बारूद
ढह जाएँगे इन से
ज़ालिमों के किले
रचनाकाल : 14.01.09