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नदी किनारे
एक सूखा वृक्ष
बिन पत्तों,
बिन शाखाओं के
झुका खड़ा था...
जिसे देख
एक बूढ़े पथिक ने पूछा --
उदास दीखते हो तुम..
वृक्ष ने कहा --
सोच रहा हूँ ..
नियति ने मेरे साथ
यह अन्याय क्यों किया ?
मैंने तो किसी को दुःख ना दिया.
मित्र, शत्रु, अमीर, ग़रीब
सब को एक सम
फल-फूल और छाँव दी..
फिर क्यों..
उन्होंने ही छीन लीं
मेरी शाखाएँ,
कर दिया मुझे
बेकार -अकेला !
अब तो
टूटता सुनाई देता है
जननी से भी नाता !
है तो बस अब
प्रतीक्षा ...
मुक्ति की !
बूढ़े पथिक ने
सांत्वना देते हुए कहा --
है नियति सब की एक समान
छोटा हो या बड़ा या हो महान.
तुम्हें तो प्रसन्न होना चाहिए,
जब तक चेतना में रहे
परोपकारी रहे
अब अचेतन में भी
प्रयोग में आओगे सभी के
रहोगे सब की यादों में बसे.
लेकिन
हमें देखो
विमुख हो गए
अपने ही ....
प्रतीक्षा में हैं
मुक्ति की उनकी
गोद में खेले
और चलना सीखा
उंगली पकड़ कर जिनकी
ऐ कर्मयोगी!
मुझे ईर्षा है तुमसे
पर नमन करता हूँ तुम्हें
श्रद्धा से ...
तभी..
कड़कड़ाहट की
ध्वनी गूंजी
वृक्ष समा गया चुपचाप
अपनी जननी की बाँहों में