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10:43, 1 सितम्बर 2010 के समय का अवतरण
बुद्धिजीवी मित्र
लाया मेरे लिए
एक दिन
भीगी किताब
और
चन्द कोरे वर्क...
कहने लगा --
लिख ऐसा कुछ
जो ना धुल सके
ना ही मिट सके..
सोचने लगी..
क्या लिखूँ--
बुद्धि है कुंद मेरी
कलम टूटी हुई
नज़र घायल सी
आँसू सूखे हुए
समय रुका सा
समाज उधडा सा....
शब्द पिरोउं भी तो कैसे...
कहीं कुछ स्पंदन हो
तो पता चले
क्या टूटा ..
क्या छूटा..
तभी दूर
एक नन्हीं सी
किरण उठी
सूरज की पहली किरण सी
उम्मीदों की डोर थामें
आशाओं की पतंग उड़ाए
कहने लगी -
कर लो पूरी इच्छाएँ
भर दो पेट
ढक दो तन
भूखे नंगों के...
प्रेरित हो
नया कलम उठाया ही था
सुहाना दृश्य टूट गया
देखा
वो ही समाज
वो ही भूखे नंगों की भीड़
वो ही कुर्सियाँ
बदले थे तो बस
उन पर सजे चेहरे ..
परेशान हो गई
झुँझला कर
तोड़ दी नई कलम
तार -तार कर दिए
कोरे वर्क ...