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फूले वनांत के कांचनार !
खेतों के चंचल अंचल से आती रह-रह सुरभित बयार।
फूले वनांत के कांचनार ।
मिट्टी की गोराई निखरी,
रग-रग में अरुणाई बिखरी,
कामना-कली सिहरी-सिहरी पाकर ओठों पर मधुर भार।
फूले वनांत के कांचनार !
घासों पर अब छाई लाली,
चरवाहों के स्वर में गाली,
सकुची पगडंडी फैल चली लेकर अपना पूरा प्रसार।
फूले वनांत के कांचनार !
शाखों से फूटे लाल-लाल,
सेमल के मन के मधु-ज्वाल,
उमड़े पलास के मुक्त हास, गुमसुम है उत्सुक कर्णिकार ।
फूले वनांत के कांचनार !
मंजरियों का मादक रस पी,
बागों में फिर कोयल कूकी,
उत्सव के गीतों से अहरह मुखरित ग्रामों के द्वार-द्वार ।
फूले वनांत के कांचनार !
रचनाकाल : मार्च 1962