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बिरहा सुबुक-सुबुक रोए है
कजरी खड़ी बिसूरे।
ऋण खाते ये शादी-गौने,
धर्मपुण्य सब औने-पौने;
जाते भूखे, जात खा रही
छोले और भटूरे।
साहूकारों के सुराज में,
पिया गए परदेश ब्याज मे;
सूफी प्रेम-पीर ढोए है
ज्ञानी इकटक घूरे।
होरी गोबर से उकताए,
बलचनमा घर लौट न पाए;
ठुमरी भूली ठसक, तराने
आधे और अधूरे।