भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"निरीह सपने / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= मनोज श्रीवास्तव |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> '''निरीह सपन…)
 
 
पंक्ति 9: पंक्ति 9:
 
   
 
   
 
   
 
   
सपनों के चुने मृग  
+
सपनों के छौने मृग  
 
कुलांचे तो भरते हैं
 
कुलांचे तो भरते हैं
 
नींद के जंगल में,
 
नींद के जंगल में,
पंक्ति 17: पंक्ति 17:
 
   
 
   
 
चूंकि सपने भी समझते हैं
 
चूंकि सपने भी समझते हैं
आज़ादी का मतलब
+
आज़ादी का मतलब,
इसीलिए नींदखाने से रिहा हो
+
इसीलिए, नींदखाने से रिहा हो
 
जागती आँखों में
 
जागती आँखों में
 
दिवास्वप्न बन
 
दिवास्वप्न बन
पंक्ति 29: पंक्ति 29:
 
निर्झर बरसात में
 
निर्झर बरसात में
 
सपने नहा-धो
 
सपने नहा-धो
सुघड़ निखर जाते हैं  
+
सुघड़-निखर जाते हैं  
 
   
 
   
 
नींद में कैद सपने
 
नींद में कैद सपने
 
निकलकर बाहर  
 
निकलकर बाहर  
विचार नहीं पाते हैं  
+
विचर नहीं पाते हैं  
कविता के अंडर,
+
कविता के अंदर,
 
काहिल पहाड़ जैसे  
 
काहिल पहाड़ जैसे  
 
अडिग पड़े रहते हैं
 
अडिग पड़े रहते हैं
पंक्ति 41: पंक्ति 41:
 
सिसकते हैं, सुबगते हैं
 
सिसकते हैं, सुबगते हैं
 
मुस्कराते हैं, ठहठहाते हैं  
 
मुस्कराते हैं, ठहठहाते हैं  
पर,करवटें बदलकर  
+
पर, करवटें बदलकर  
 
बैठकर, खड़े होकर
 
बैठकर, खड़े होकर
जीवन के टला पर
+
जीवन के तल पर
 
चल नहीं पाते हैं
 
चल नहीं पाते हैं
 
क्योंकि वे सपने हैं  
 
क्योंकि वे सपने हैं  

13:23, 10 सितम्बर 2010 के समय का अवतरण

निरीह सपने
 
 
सपनों के छौने मृग
कुलांचे तो भरते हैं
नींद के जंगल में,
पर, कभी-कभी चाहते हैं
गाफिल टहलना भी
नींद से बाहर
 
चूंकि सपने भी समझते हैं
आज़ादी का मतलब,
इसीलिए, नींदखाने से रिहा हो
जागती आँखों में
दिवास्वप्न बन
बेखटक विचरते हैं
 
आँखों के घर में
सपनों के रहने का
एक ही फ़ायदा है
नानाविध आंसुओं की
निर्झर बरसात में
सपने नहा-धो
सुघड़-निखर जाते हैं
 
नींद में कैद सपने
निकलकर बाहर
विचर नहीं पाते हैं
कविता के अंदर,
काहिल पहाड़ जैसे
अडिग पड़े रहते हैं
गुर्राते हैं, कराहते हैं
भिनभिनाते हैं, फड़फड़ाते हैं
सिसकते हैं, सुबगते हैं
मुस्कराते हैं, ठहठहाते हैं
पर, करवटें बदलकर
बैठकर, खड़े होकर
जीवन के तल पर
चल नहीं पाते हैं
क्योंकि वे सपने हैं
आहत आशाओं
अवगुंठित कुंठाओं
दमित इच्छाओं
के तारों से बिंधे हुए
 
चूंकि सपने तरल नहीं हैं
इसलिए नहीं बह पाते हैं
इस खाबड़ जमीन पर
नित्यमान, धाराप्रवाह
सींच नहीं पाते हैं
बालुई-ऊसर
जीवन के किनारे.