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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक : इन फ़िरकापरस्तों की बातों में न आ जाना<br>
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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक : तुहमतें चन्द अपने ज़िम्मे धर चले<br>
&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[आदिल रशीद]]</td>
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&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[ख़्वाजा मीर दर्द]]</td>
 
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रूहों ने शहीदों की फिर हमको पुकारा है
+
तुहमतें चन्द अपने ज़िम्मे धर चले
सरहद की सुरक्षा का अब फ़र्ज़ तुम्हारा है
+
किसलिए आये थे हम क्या कर चले 
  
हमला हो जो दुश्मन का हम जायेगे सरहद पर
+
ज़िंदगी है या कोई तूफ़ान है
जाँ  देंगे वतन पर ये अरमान हमारा है
+
हम तो इस जीने के हाथों मर चले
  
इन फिरकापरस्तों की बातों में न आ जाना
+
क्या हमें काम इन गुलों से ऐ सबा
मस्जिद भी हमारी है , मंदिर भी हमारा है
+
एक दम आए इधर, उधर चले
  
ये कह के हुमायूँ को भिजवाई थी इक राखी
+
दोस्तो देखा तमाशा याँ का बस
मजहब हो कोई लेकिन तू भाई हमारा है
+
तुम रहो अब हम तो अपने घर चले
  
अब चाँद भले काफ़िर कह दें ये जहाँ वाले
+
आह!बस जी मत जला तब जानिये
जिसे कहते हैं मानवता वो धर्म हमारा है
+
जब कोई अफ़्सूँ तेरा उस पर चले
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शमअ की  मानिंद हम इस बज़्म में
 +
चश्मे-नम आये थे, दामन तर चले 
  
रूहों ने शहीदों की फिर हमको पुकारा है
+
ढूँढते हैं  आपसे  उसको  परे
सरहद की सुरक्षा का अब फ़र्ज़ तुम्हारा है </pre>
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शैख़ साहिब छोड़ घर बाहर चले
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हम जहाँ में आये थे तन्हा वले
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साथ अपने अब उसे लेकर चले
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जूँ शरर ऐ हस्ती-ए-बेबूद याँ
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बारे हम भी अपनी बारी भर चले
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साक़िया याँ लग रहा है चल-चलाव,
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जब तलक बस चल सके साग़र चले
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'दर्द'कुछ मालूम है ये लोग सब
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किस तरफ से आये थे कीधर चले</pre>
 
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10:59, 21 सितम्बर 2010 का अवतरण

Lotus-48x48.png  सप्ताह की कविता   शीर्षक : तुहमतें चन्द अपने ज़िम्मे धर चले
  रचनाकार: ख़्वाजा मीर दर्द
तुहमतें चन्द अपने ज़िम्मे धर चले 
किसलिए आये थे हम क्या कर चले   

ज़िंदगी है या कोई तूफ़ान है
हम तो इस जीने के हाथों मर चले 

क्या हमें काम इन गुलों से ऐ सबा
एक दम आए इधर, उधर चले

दोस्तो देखा तमाशा याँ का बस
तुम रहो अब हम तो अपने घर चले

आह!बस जी मत जला तब जानिये
जब कोई अफ़्सूँ तेरा उस पर चले
 
शमअ की  मानिंद हम इस बज़्म में
चश्मे-नम आये थे, दामन तर चले  

ढूँढते हैं  आपसे  उसको   परे
शैख़ साहिब छोड़ घर बाहर चले

हम जहाँ में आये थे तन्हा वले
साथ अपने अब उसे लेकर चले

जूँ शरर ऐ हस्ती-ए-बेबूद याँ
बारे हम भी अपनी बारी भर चले

साक़िया याँ लग रहा है चल-चलाव,
जब तलक बस चल सके साग़र चले

'दर्द'कुछ मालूम है ये लोग सब
किस तरफ से आये थे कीधर चले