"डर / पूनम तुषामड़" के अवतरणों में अंतर
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18:16, 24 सितम्बर 2010 के समय का अवतरण
मेरे सोने से पहले
और जागने के बाद
यकायक
क्यूं कस जाता है
शिकंजा
मेरे चारों ओर
कोई चक्रब्यूह-सा।
जिसे चाहकर भी
मैं तोड़ नहीं पाती हूं।
न जाने कौन-सा डर
समा जाता है
मन में।
यह डर मेरा
अपना नहीं है
यह मिला है
विरासत में
बचपन से जवानी तक
अलग-अलग रूप धरे।
औरत हूं न
बचपन में
गली में खेलते
लड़कों से डर
खुल के हंसते हुए
बुजर्गों का डर
राह में चलतेक
पड़ों का डर
स्कूल में पढ़ते हुए
टीचर का डर
पहचान बताते हुए
जाति का डर
जवान हुईरुसवाई का डर
पिता की जग
हंसाई का डर
घर की बर्बादी का डर
लड़की हूं
शादी का डर।
शादी हुई तो
गृहस्थी का डर
गृहस्थी में
पति का डर
यही है औरत के
मन पर व्याप्त
व्यवस्था की गाज़ का डर
पर यह डर मैं अब
आगे नहीं बढ़ने दूंगी।
मैं अब इसे
विरासत नहीं बनने दूंगी
अपनी बेटी की आंखों में
मैं जीवन के सतरंगी
सपने दूंगी।
उसके वातावरण को
झंकृत करने वाली
उन्मुक्त हंसी दूंगी
उसके नन्हें हाथों में
असमर्थताओं की नहीं
संभावनाओं की शक्ति दूंगी
मैं उसे स्वतंत्रा, सम, निडर
जीवन दूंगी।