भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"घर का अँधेरा / अमरजीत कौंके" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरजीत कौंके |संग्रह=अंतहीन दौड़ / अमरजीत कौंके …)
 
(कोई अंतर नहीं)

12:51, 3 अक्टूबर 2010 के समय का अवतरण

मैं घर से चला
तो घर का अँधेरा
मेरे साथ साथ
चल रहा था

मेरी आँखों में सूरज था
उज्जवल भविष्य के
सपने थे
लेकिन मेरे पाँवों में
पीछे छूट चुके
घर की बेड़ियाँ थीं
रिश्तों की आवाज़ें थीं
मेरे शहर की
छूट रही सीमाएँ थीं
मेरे पूर्वजों की आत्माएँ थीं

मैं अपने रास्तों में अटके
काले पवर्तों से जूझा
मैंने मरूस्थली पगडंडियों को फलाँगा
समुद्रों को तैर कर पार किया
हाथों में सूरज को पकड़ा
तितलियों को
सपनों में सजाया
धीरे-धीरे मैंने
अपनी इच्छा का
अपना संसार बसाया

लेकिन अब
जब कभी भी मैं
भूले भटके
अपने शहर जाता हूँ
अपने घर की
चौखट पर पैर टिकाता हूँ
तो उस घर का अँधेरा
मुझसे अजब सवाल करे है
जिनका जवाब देने से
मेरा मन डरे है

मैं जल्दी-जल्दी
माँ की सूख रही हथेलियों पर
चन्द सिक्के टिकाता हूँ
और वापिस
अपने शहर लौट आता हूँ

लेकिन
मेरे पीछे चल पड़ती हैं
कुछ आवाज़ें
जिनसे बचने के लिए
मैं छटपटाता हूँ
दर्द से बिलबिलाता हूँ

अँधेरे के
इस जंगल से
निकलने के लिए
तिलमिलाता हूँ
आँसू बहाता हूँ

मैं घर से चलता हूँ
तो घर का अँधेरा
अब भी
मेरे साथ साथ चलता है ।


मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा