"शिला / अमरजीत कौंके" के अवतरणों में अंतर
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+ | बहुत स्मृतियों का पानी | ||
+ | छिड़का मैंने उस पर | ||
+ | उसे कमर से गुदगुदाया | ||
+ | अपनी पुरानी | ||
+ | कविताएँ सुनाईं | ||
+ | बीती ऋतुओं की हँसी याद दिलाई | ||
+ | लेकिन उसे कुछ याद नहीं आया | ||
+ | इस तरह | ||
+ | यादों से परे | ||
+ | शिला हो गई वह | ||
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+ | उसके एक ओर मैं था | ||
+ | सूर्य के सातवें घोड़े पर सवार | ||
+ | किसी राजकुमार की तरह | ||
+ | उसे लुभाता | ||
+ | उसके सपनों में | ||
+ | उसकी अँगुली पकड़ | ||
+ | अनोखे नभ में | ||
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+ | एक और उसका घर था | ||
+ | जिसमें उसकी उम्र दफ़्न पड़ी थी | ||
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+ | उसने उम्र काटी थी | ||
+ | बच्चे थे | ||
+ | जो यौवन की दहलीज़ | ||
+ | फलाँग रहे थे | ||
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+ | एक और उसके | ||
+ | संस्कार थे | ||
+ | मंगलसूत्र था | ||
+ | सिन्दूर था | ||
+ | हुस्न का टूटता हुआ गरूर था | ||
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+ | समाज के बन्धन थे | ||
+ | हाथों में कंगन थे | ||
+ | जो अब उसके लिए | ||
+ | बेड़ियाँ बनते जा रहे थे | ||
+ | उसे लगता था | ||
+ | कि उसके सपनों की उम्र | ||
+ | उसके संस्कार ही खा रहे थे | ||
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+ | इस तरह घिरी वह | ||
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12:09, 10 अक्टूबर 2010 के समय का अवतरण
वह जो मेरी
कविताओं की रूह थी
मेरे देखते ही देखते
एक दम शिला हो गई
बहुत स्मृतियों का पानी
छिड़का मैंने उस पर
उसे कमर से गुदगुदाया
अपनी पुरानी
कविताएँ सुनाईं
बीती ऋतुओं की हँसी याद दिलाई
लेकिन उसे कुछ याद नहीं आया
इस तरह
यादों से परे
शिला हो गई वह
उसके एक ओर मैं था
सूर्य के सातवें घोड़े पर सवार
किसी राजकुमार की तरह
उसे लुभाता
उसके सपनों में
उसकी अँगुली पकड़
अनोखे नभ में
उसे घुमाता
एक और उसका घर था
जिसमें उसकी उम्र दफ़्न पड़ी थी
उसका पति था
जिसके साथ
उसने उम्र काटी थी
बच्चे थे
जो यौवन की दहलीज़
फलाँग रहे थे
एक और उसके
संस्कार थे
मंगलसूत्र था
सिन्दूर था
हुस्न का टूटता हुआ गरूर था
समाज के बन्धन थे
हाथों में कंगन थे
जो अब उसके लिए
बेड़ियाँ बनते जा रहे थे
उसे लगता था
कि उसके सपनों की उम्र
उसके संस्कार ही खा रहे थे
इन सब में
इस तरह घिरी वह
कि एक दम
शिला हो गई ।
मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा