"लड़ गए / केदारनाथ अग्रवाल" के अवतरणों में अंतर
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+ | पुश्त-दर-पुश्त की पंडा-बही; | ||
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+ | गलत-सही साबिक और हाल के | ||
+ | कागजी इन्दरजाल। | ||
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+ | ढमाढम बजते हैं गाल के बड़े बोल | ||
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+ | अरालकेशी अवनी की बाहों में; | ||
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+ | भ्रम में भूली दुनिया। | ||
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+ | कीचड़ में सनी राजपथ में पिटी पड़ी हैं | ||
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+ | नाजुक, नौजवान, दिशा-दृष्टि-हीन | ||
+ | सुर्खियाँ। | ||
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+ | अलभ्य हो गई | ||
+ | आदमी को आदमी की पहचान। | ||
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+ | मासूम जिंदगी | ||
+ | छोटी हो गई सिकुड़ते-सिकुड़ते- | ||
+ | छिगुली की तरह, | ||
+ | मौत के माहौल में- | ||
+ | पेट-पीठ-मार व्यापार के मखौल में | ||
+ | खचाखच भरे हैं | ||
+ | बरजोर बेईमानियों के तहखाने; | ||
+ | खाली पड़े हैं यथास्थान | ||
+ | खपरैल छाए-बरसों पुराने | ||
+ | ईमान के हाथों उठाए मकान। | ||
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+ | नायाब बजाते हैं | ||
+ | नरक का सितार नेकनाम नारद। | ||
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+ | देवता और देवराज | ||
+ | जागती जमीन की तपस्या से | ||
+ | चौंकते-थर्राते हैं | ||
+ | आज भी-अब भी। | ||
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+ | प्रान और पानी का पोलो खेलते हैं | ||
+ | कुशल-क्षेम से, | ||
+ | दाँव-पेंच के पचड़े में पड़े | ||
+ | राजघाट की राजनीति के ‘नुमाइन्दे’; | ||
+ | डूबते आदमी को डूबते नहीं देखते, | ||
+ | हर्ष के हौसले में मस्त | ||
+ | फर्ज की दुनिया से आँख चुराए। | ||
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+ | टूटती, | ||
+ | टकराती, | ||
+ | पछाड़ खाती झनझनाती हैं | ||
+ | उठी लहरें; | ||
+ | समर जीतने का स्वप्न देखते-देखते | ||
+ | बात-की-बात में | ||
+ | हार-हार जाती हैं। | ||
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17:13, 15 अक्टूबर 2010 का अवतरण
लड़ गए
बड़े-बूढ़े जवान गिरगिटान,
दूसरी क्रान्ति के प्रवर्तक कापालिक महान्,
कुर्सी के लिए
कुर्सियों के दण्डकारण्य में।
खुल गई राजघाट में
पुश्त-दर-पुश्त की पंडा-बही;
चाव से पढ़ने लगे लोग
पिता-पुत्र के
गलत-सही साबिक और हाल के
कागजी इन्दरजाल।
ढमाढम बजते हैं गाल के बड़े बोल
और ढोंग के ढोल।
सत्य सोता है
अरालकेशी अवनी की बाहों में;
असत्य नाचता है,
मयूर-नाच, इन्द्रधनुष के साथ,
मुग्ध देखती है
भ्रम में भूली दुनिया।
कीचड़ में सनी राजपथ में पिटी पड़ी हैं
राज-रथ से
नाजुक, नौजवान, दिशा-दृष्टि-हीन
सुर्खियाँ।
अलभ्य हो गई
आदमी को आदमी की पहचान।
मासूम जिंदगी
छोटी हो गई सिकुड़ते-सिकुड़ते-
छिगुली की तरह,
मौत के माहौल में-
पेट-पीठ-मार व्यापार के मखौल में
खचाखच भरे हैं
बरजोर बेईमानियों के तहखाने;
खाली पड़े हैं यथास्थान
खपरैल छाए-बरसों पुराने
ईमान के हाथों उठाए मकान।
नायाब बजाते हैं
नरक का सितार नेकनाम नारद।
देवता और देवराज
जागती जमीन की तपस्या से
चौंकते-थर्राते हैं
आज भी-अब भी।
प्रान और पानी का पोलो खेलते हैं
कुशल-क्षेम से,
दाँव-पेंच के पचड़े में पड़े
राजघाट की राजनीति के ‘नुमाइन्दे’;
डूबते आदमी को डूबते नहीं देखते,
हर्ष के हौसले में मस्त
फर्ज की दुनिया से आँख चुराए।
टूटती,
टकराती,
पछाड़ खाती झनझनाती हैं
उठी लहरें;
समर जीतने का स्वप्न देखते-देखते
बात-की-बात में
हार-हार जाती हैं।
रचनाकाल: