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"आ क़दम बढ़ा, चल साथ मेरे / भोला पंडित प्रणयी" के अवतरणों में अंतर

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कैसे सस्मित हो यह आनन, जब मन में उल्लास नहीं है,
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आ क़दम बढ़ा, चल साथ मेरे, उठ जीने का कर फर्ज अदा !
सुमन खिले सूखी डाली पर, ऐसा तो विश्वास नहीं है ।
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जिस घर माँगा प्यार उसी ने
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यह बड़ी बात तू ज़िन्दा है
उलझन का उपहार दिया है,
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लड़ना है तुझको वहशत से,
फूलों के बदले दुनिया ने
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अपने को मफ़फलिस मत समझो
पत्थर से सत्कार किया है ।
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टकराना है इस दहशत से
उलझा-उलझा मन है मेरा, चातक हूँ पर प्यास नहीं है
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तू बाँध कफ़न अपने सर पर, न रहना है अब ख़ौफ़ज़दा ।
  
जब तक मौसम साथ निभाए
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ये ज़ुल्मो सितम सहकर कब तक
तब तक गंध सुमन ने छोड़े,
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तू अपनी जिबह कराएगा,
नीरस जीवन की परिभाषा
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आदमख़ोरों से कब तक तू
देकर वह संत्रास ही जोड़े ।
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चुपचाप सज़ाएँ पाएगा ?
सूखे अधर दिखाऊँ कैसे, जब उसमें मीठास नहीं है
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ख़तरे की घंटी बजती है, मक्तल से आती दर्दे-सदा !
  
टूटा पात लौट कर जैसे
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हादसे, कत्ल, बमबारी से
कभी नहीं डाली पर आता,
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सब आतंकित हैं सोगवार,
अँखियन में जब नींद नहीं
+
दोशीजा की अस्मत लुटती
फिर स्वप्न कहाँ उसमें आ पाता ।
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क्या लाफ़ानी है बलात्कार?
सूखे हुए सुमन में सच ही, फल का कभी विकास नहीं है
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तू रोक इसे आगे बढ़कर, है तेरे कंधे बोझ लदा !
  
आई बार-बार हैं घड़ियाँ
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लूटा है गुलशन को जिसने
टकराती जब नाव किनारे,
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पहचानो वैसी मूरत को,
स्वर बंदी तब हो जाते हैं
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ज़ालिम बनकर जिसने चूसा
मिलते जब शब्द-सहारे ।
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छलनी कर उसकी फ़ितरत को।
क़लम उत्साहित है लिखने को, भाव ही मेरे पास नहीं है
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तुम नहीं मुंतजिर बन बैठो, कर दो तुम उसको बेपरदा !
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देखो दाग लगे दामन
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यह वतन तुम्हारी अम्मा है,
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ऐ वतनपरस्तो, परवानो,
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हर शै पर जलती शम्मा है।
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तेरी तकदीर बनाने को, हर साँस का ख़िदमतग़ार ख़ुदा !
 
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12:19, 19 अक्टूबर 2010 के समय का अवतरण

आ क़दम बढ़ा, चल साथ मेरे, उठ जीने का कर फर्ज अदा !

यह बड़ी बात तू ज़िन्दा है
लड़ना है तुझको वहशत से,
अपने को मफ़फलिस मत समझो
टकराना है इस दहशत से ।
तू बाँध कफ़न अपने सर पर, न रहना है अब ख़ौफ़ज़दा ।

ये ज़ुल्मो सितम सहकर कब तक
तू अपनी जिबह कराएगा,
आदमख़ोरों से कब तक तू
चुपचाप सज़ाएँ पाएगा ?
ख़तरे की घंटी बजती है, मक्तल से आती दर्दे-सदा !

हादसे, कत्ल, बमबारी से
सब आतंकित हैं सोगवार,
दोशीजा की अस्मत लुटती
क्या लाफ़ानी है बलात्कार?
तू रोक इसे आगे बढ़कर, है तेरे कंधे बोझ लदा !

लूटा है गुलशन को जिसने
पहचानो वैसी मूरत को,
ज़ालिम बनकर जिसने चूसा
छलनी कर उसकी फ़ितरत को।
तुम नहीं मुंतजिर बन बैठो, कर दो तुम उसको बेपरदा !

देखो न दाग लगे दामन
यह वतन तुम्हारी अम्मा है,
ऐ वतनपरस्तो, परवानो,
हर शै पर जलती शम्मा है।
तेरी तकदीर बनाने को, हर साँस का ख़िदमतग़ार ख़ुदा !