भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कुछ फ़ैसला तो हो / परवीन शाकिर" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 10: पंक्ति 10:
 
पानी को अब तो सर से गुज़र जाना चाहिये<br><br>
 
पानी को अब तो सर से गुज़र जाना चाहिये<br><br>
  
हर बार एड़ीयों पे गिरा है मेरा लहू<br>
+
हर बार एड़ियों पे गिरा है मेरा लहू<br>
 
मक़्तल में अब ब-तर्ज़-ए-दिगर जाना चाहिये<br><br>
 
मक़्तल में अब ब-तर्ज़-ए-दिगर जाना चाहिये<br><br>
  
पंक्ति 17: पंक्ति 17:
  
 
सारा ज्वार-भाटा मेरे दिल में है मगर<br>
 
सारा ज्वार-भाटा मेरे दिल में है मगर<br>
इल्ज़ाम ये भी चाँद के सर जाना चाहिये<br><br>
+
इल्ज़ाम ये भी चांद के सर जाना चाहिये<br><br>
  
 
जब भी गये अज़ाब-ए-दर-ओ-बाम था वही<br>
 
जब भी गये अज़ाब-ए-दर-ओ-बाम था वही<br>
पंक्ति 24: पंक्ति 24:
 
तोहमत लगा के माँ पे जो दुश्मन से दाद ले<br>
 
तोहमत लगा के माँ पे जो दुश्मन से दाद ले<br>
 
ऐसे सुख़नफ़रोश को मर जाना चाहिये<br><br>
 
ऐसे सुख़नफ़रोश को मर जाना चाहिये<br><br>
 +
 +
 +
 +
ब-तर्ज़-ए-दिगर= दूसरे आदमी की तरह; रख़्त-ए-सफ़र= सफ़र का सामान; अज़ाब-ए-दर-ओ-बाम=घर की मुसीबत

23:16, 31 दिसम्बर 2007 का अवतरण

रचनाकार: परवीन शाकिर

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

कुछ फ़ैसला तो हो कि किधर जाना चाहिये
पानी को अब तो सर से गुज़र जाना चाहिये

हर बार एड़ियों पे गिरा है मेरा लहू
मक़्तल में अब ब-तर्ज़-ए-दिगर जाना चाहिये

क्या चल सकेंगे जिन का फ़क़त मसला ये है
जाने से पहले रख़्त-ए-सफ़र जाना चाहिये

सारा ज्वार-भाटा मेरे दिल में है मगर
इल्ज़ाम ये भी चांद के सर जाना चाहिये

जब भी गये अज़ाब-ए-दर-ओ-बाम था वही
आख़िर को कितनी देर से घर जाना चाहिये

तोहमत लगा के माँ पे जो दुश्मन से दाद ले
ऐसे सुख़नफ़रोश को मर जाना चाहिये


ब-तर्ज़-ए-दिगर= दूसरे आदमी की तरह; रख़्त-ए-सफ़र= सफ़र का सामान; अज़ाब-ए-दर-ओ-बाम=घर की मुसीबत