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"स्वार्थ का सुख और है, सेवा का सागर और है / गिरिराज शरण अग्रवाल" के अवतरणों में अंतर
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स्वार्थ का सुख और है, सेवा का सागर और है
आदमी के नाम का इक क़र्ज़ हम पर और है
अपने आँगन में दिया रखने से पहले ध्यान दो
बीच की दीवार के उस पार इक घर और है
कटने ही वाला है पर्वत राह का, थककर न बैठ
एक पत्थर और है, बस एक पत्थर और है
हौसले के साथ जीवन जी, मगर दोहरा न जी
घर के अंदर और है तू, घर के बाहर और है
कोई भी सागर हो, है तैराक की बाहों से कम
क्या हुआ गर रास्ते में इक समंदर और है