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»  अकेलापन

ठंडी शाम थी वह
दुबली-पतली एक विदेशी औरत
नहा रही थी समुद्र में लगभग निर्वसन
और सोच रही थी मन ही मन
कि अपनी उस नेकर में नीली
शरीर से चिपकी है जो गीली
अधनंगी पानी से बाहर वह निकलेगी जब
शायद पुरुष उसे देखेगा तब

बाहर आई वह समुद्र से
पानी उसके शरीर से टपक रहा था खारा
रेत पर बैठ गई ओढ़ कर लबादा
खा रही थी वह अब एक आलूबुखारा

समुद्र किनारे उगा हुआ था झाड़-झँखाड़
झबरे बालों वाला कुत्ता एक वहाँ खड़ा था खूँखार
भौंकता था वह कभी-कभी ज़ोर से
ख़ुशी से उमग कर लहरों के शोर से
अपने गर्म भयानक जबड़ों में
पकड़ना चाहता था
वह काली गेंद जिसे उड़ना आता था
जिसे होप...होप करते हुए
फेंक रही थी वह औरत
दूर से लग रही थी जो
बिल्कुल संगमरमर की मूरत

झुटपुटा हो चला था
उस स्त्री के पीछे दूर
जलने लगा था एक प्रकाशस्तम्भ
किसी सितारे की तरह था उसका नूर
समुद्र के किनारे गीली थी रेत
ऊपर चाँद निकल आया था श्वेत
लहरों पर सवार हो वह
टकरा रहा था तट से
बिल्लौरी हरी झलक दिखा अपनी
फिर छुप जाता था झट से

वहीं पास में
चाँदनी से रोशन आकाश मे
सीधी खड़ी ऊँची चट्टान पर
एक बैंच पड़ी थी वहाँ मचान पर
पास जिसके लेखक खड़ा था खुले सिर
एक गोष्ठी से लौटा था वह आज फिर
हाथ में उसके सुलग रहा था सिगार
व्यंग्य से मुस्कराया वह जब आया यह विचार
"पट्टियों वाली नेकर में इस स्त्री का तन
खड़ा हो ज़ेबरा जैसे अफ़्रीका के वन"

(10 सितम्बर 1915)

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय