"जगाना मत ! / अपर्णा भटनागर" के अवतरणों में अंतर
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21:26, 8 नवम्बर 2010 के समय का अवतरण
काँपते हाथों से
वह साफ़ करता है
काँच का गोला
कालिख़ पोंछकर
लगाता है जतन से
लौ टिमटिमाने लगी है
इस पीली झुँसी रोशनी में
उसके माथे पर
लकीरें उभरती हैं
बाहर जोते खेत की तरह
समय ने कितने हल चलाए हैं माथे पर ?
पानी की टिपटिप सुनाई देती है
बादलों की नालियाँ
छप्पर से बह चली हैं
बारह मासा - धूप, पानी ,सर्दी को
अपनी झिर्रियों से आने देती
काला पड़ा पुआल
तिकोना मुँह बना हँसता है
और वह काँप-काँपकर
ज़िन्दगी को लालटेन में जलते देखता है
इस रोशनी में और भी कुछ शामिल है -
कुछ तुड़े-मुड़े ख़त
उसके जाने के बाद के
विस्मृति के बोझिल अक्षर
जिन्हें वह बँचवाता था डाकिये से
आजकल वह भी नहीं आता ।
इस लौ के सामने
खोल देता है अक्षरों के बिम्ब
अनपढ़ मन के रटे पाठ
और सुधियाँ बरस पड़ती हैं
ज्यों बैल की पीठ पर दागे कोड़े ।
गोले की जलन आँखों में भर गई है
एक कलौंस - अकेलेपन की
कँपकँपाती लौ ऊपर उठती है
भक होकर पछाड़ मारती है
धुएँ से भरी एक भोर -
अब उसकी आँख लग गई है
जगाना मत !