"छठ की याद में / फ़रीद खान" के अवतरणों में अंतर
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23:00, 14 नवम्बर 2010 के समय का अवतरण
पटना की स्मृति के साथ मेरे मन में अंकित है,
सूर्य को अर्घ्य देते हाथों के बीच से दिखता लाल सा सूरज ।
पूरे शहर की सफ़ाई हुई होगी ।
उस्मान ने रंगा होगा त्रिपोलिया का मेहराब ।
बने होंगे पथरी घाट के तोरण द्वार ।
परसों सबने खाए होंगे गन्ने के रस से बनी खीर,
और गुलाबी गगरा नींबू ।
व्रती ने लिया होगा हाथ में पान और कसैली ।
अम्मी बता रही थीं,
चाची से अब सहा नहीं जाता उपवास,
इसलिए मंजु दीदी ने उठाया है उनका व्रत ।
रुख़सार की शादी भी अब हो जाएगी ।
उसकी अम्मी ने भी अपना एक सूप दिया था मंजु दीदी को ।
सबकी कामनाएँ पूरी होंगी,
धान की फ़सल जो अच्छी आई है इस बार ।
पानी पटा होगा सड़कों पर शाम के अर्घ्य के पहले ।
धूल चुपचाप कोना थाम कर बैठ गई होगी ।
व्रती जब साष्टांग करते हुए बढ़ते हैं घाट पर,
तो वहाँ धूल कण नहीं होना चाहिए, न ही आना चाहिए मन में कोई पाप ।
वरना बहुत पाप चढ़ता है ।
इस समय बढ़ने लगती है ठंड पटना में।
मुझे याद है एक व्रती ।
सुबह अर्घ्य देकर वह निकला पानी से,
अपने में पूरा जल जीवन समेटे
और चेहरे पर सूर्य का तेज लिए ।
गंगा से निकला वह
दीये की लौ की तरह सीधा और संयत ।
सुबह के अर्घ्य में ज़्यादा मज़ा आता था,
क्यों कि ठेकुआ खाने को तब ही मिलता था ।
पूरा शहर अब थक कर सो रहा होगा,
एक महान कार्य के बोध के साथ।
(13 नवम्बर 2010)