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मुझे निद्रा ने आ घेरा जब
आँधी चल रही थी और
मौसम बेहद ख़राब था
शोकाकुल मैं थका हुआ
तब पूरी तरह निराश था
पर जागा सुप्तावस्था से जब
सुख सामने खड़ा
धीमे-धीमे मुस्करा रहा था
और मुझे अपनी फूहड़ता पर
बेहद गुस्सा आ रहा था
बादल दौड़ रहे थे ऊपर
हल्की ऊष्मा से भरे हुए
गर्मी के दिन थे चमकदार
आसमान से झड़े हुए
भुर्ज-वृक्षों के नीचे पथ पर
बिछी हुई थी रेत
छाया पेड़ों की काँप रही थी
हरे-भरे थे खेत
उन हरे-भरे खेतों से होकर
समीर सीत्कार रहा था
मेरे दिल में यौवन का जोश
थपकी मार रहा था
सपने बसे हुए थे दिल में
थी तरुणाई की इच्छा
पहले क्यों यह समझ न पाया
मन चीत्कार रहा था
(1902)
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय