|संग्रह=भटका मेघ / श्रीकांत वर्मा
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इस नीले सिंधु तीर, एक शाम
गीला एकान्त देख
आँख डबडबाई थी
और व्यथा की नन्ही जल चिड़िया
मुझसे कुछ बोली थी ।
मैंने इस सिंधु को—
आश्वासन का एक पाल दिया था, कहाँ है ?
अब भी यह सिंधु
सब दिशाओं के कानों में चिल्ला रहा है ।
इस नीले सिंधु तीरकिन्नर, गंधर्वों की गान भरी नगरी मेंएक शाम<br>दिन,गीला एकान्त टूटा एकतारा लेभटर रहा मौन देख<br>आँख डबडबाई थी<br>गीत सुगबुगाया थाऔर व्यथा की नन्ही जल चिड़िया<br>मुझसे अनरची रचना कुछ बोली थी।<br>थी ।मैंने इस सिंधु को—<br>नगरी को, अपनी अनुभूति केगहन नीले गह्वर सेआश्वासन बादल का एक पाल गान दिया था, ; कहाँ है?<br>अब भी यह सिंधु<br>सब दिशाओं इस नगरी के कानों पाँवों में चिल्ला रहा है।<br><br>पायल की जगह वही सन्नाटा लिपटा है ।
किन्नरअंधकार के क्षितिजों, गंधर्वों की गान भरी नगरी टीलों, खंडहरों में<br>एक दिनशाम,<br>टूटा एकतारा ले<br>एक दिग्भ्रमित यात्रा औरभटर रहा मौन रुँधी दिशा देख<br>,गीत सुगबुगाया था<br>चरण डगमगाए थे और दिशाऔर अनरची रचना पंखकटी चिड़िया-सी मुझ से कुछ बोली थी।<br>थी ।मैंने इस नगरी अंधकार के भिक्षुक हाथों को, अपनी अनुभूति के<br>गहन नीले गह्वर से<br>बादल का एक गान रत्नदीप दिया था; कहाँ है?<br>अब भी इस नगरी के पाँवों अंधकार में <br>कितनी यात्राएँपायल टूटी हुई मोती की जगह वही <br>सन्नाटा लिपटा है।<br><br>माला-सी बिखरी हैं ।
अंधकार के क्षितिजों, टीलों, खंडहरों में<br>एक शाम,<br>एक दिग्भ्रमित यात्रा और<br>रुँधी दिशा देख,<br>चरण डगमगाए थे और दिशा<br>पंखकटी चिड़िया-सी मुझ से कुछ बोली थी।<br>मैंने इस अंधकार के भिक्षुक हाथों को<br>रत्नदीप दिया था; कहाँ है?<br>अब भी इस अंधकार में कितनी यात्राएँ<br>टूटी हुई मोती की माला-सी बिखरी हैं।<br><br> मैंने जो रत्नदीप दिया था, कहाँ है?<br/poem>