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18:48, 22 नवम्बर 2010 का अवतरण
गहरे अँधेरे में,
मद्धिम आलोक का
वृत्त खींचती हुई
बैठी हो तुम !
चूल्हे की राख-से
सपने सब शेष हुए ।
बच्चों की सिसकियाँ
भीतों पर चढ़ती
छिपकलियों से बिछल गईं ।
बाज़ारों के सौदे जैसे
जीवन के क्षण
तुम से स्वेद-मुद्रा ले
तौल दिए समय ने ।
बासी सब्ज़ियों-से
बासी ये क्षण ।
दिन अगर तुम्हारे लिए
झंझट की बेल है;
रात किसी बासन पर
मली हुई राख है ।
तुम पति के अंक में
वधू नहीं, वध्य हो ।
साँस भी विवशता,
उच्छवास भी विवशता है ।
बच्चे नहीं चलते हैं
चलते हैं प्रश्नचिह्न !
जीवन के प्रश्नचिह्न !
आँगन के प्रश्नचिह्न !
मगर तुम निरुत्तर हो ।
ज़िन्दगी निरुत्तर है ।
प्राण ! उठो, उठो, उठो ।
गिरना अनिवार्य नहीं
उठना अनिवार्य है ।
बच्चों की सिसकी
साँसों की प्रत्यंचा से
तीरों-सी छूटेगी ।
बच्चों के नारों की
कुंजी से द्वार
नए युग के खुल जाएँगे ।
बच्चों के शब्द
समय के खेतों को
हल बन जोतेंगे ।
बच्चे, मैली-मैली सदियों को
आँसू से,
धो देंगे, धो देंगे ।
ओ पीड़ित आत्मा !
एक और आत्मा को
कुहरे में जन्म दो--
सूर्य के लिए ।
</poem>