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"दस दोहे (101-110) / चंद्रसिंह बिरकाली" के अवतरणों में अंतर

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आली चट सूखी धरा हरी रही अळसाय।
पैल झपट्टै झांझळी लेगी रंग उड़ाय।। 101।।

गीली धरा शीघ्र ही सूख गई और हरियाली भी अलसाने लग गई। पहले झपाटे में ही झंझा सारा रंग उड़ाकर ले गई।

आठूं पोरां एकसी सूं-सूं सूंसातीह।
बांडी ज्यूं बटका भरै खूं-खूं खूंखातीह।। 102।।

आठों पहर एकसी सूं-सूं आवाज करती हुई झंझा प्रचंड वेग से चलती हुई सर्पिणी की भांति काट कर खा रही है।

हिरणां झाली आखरी ताकै कुळा-खैळ।
तिस मरता थिगता फिरै छूट्यो हिरण्यांमेळ।।103।।

हरिणों ने छाया विश्राम खोज लिया है और कुओं की खेलों की ओर ताक रहे है। प्यास से थकित से फिर रहे है और हरिणियों का साथ छूट गया है।

किरसाणां हळ छोड़िया लीना लावर कोस।
कूंवा कुंडां वेरियां पूग्या जीव मसोस।। 104।।

किसानों ने हल छोड़ दिए है और लाव तथा कोस लेकर मन में दुखी हो कुओं, कुन्ड़ो और बेरों पर पहूंच गये है।

बेगी बावड़ बावळी, धान रह्मो अळसाय।
पानां मुख पीळिजियो झुर-झुर नीचा जाय।। 105।।

पगली बादली शीघ्र लोट आओ, धान अलसा रहा है। पत्तों का मुख भी पीला पड़ गया है और वे अलसा कर नीचे झुक गये है।

गयी, गयी, ना बावड़ी रह-रह ओळयूं आय।
कुण जाणै किण देस में पवन रह्मो परचाय।। 106।।

बादली चली गई, वापिस नही आई। रह-रह कर उसकी स्मृति आ रही है। न जाने कौन से देश में पवन ने उसे बहला रखा है।

पिछवा मुड़को खांवतां वंधण लागी आस।
बाजण लाग्यो सूरियो भरिया हियै हुळास।। 107।।

पश्चिमी पवन के रूकते ही कुछ आशा बंधन लगी है। उत्तर दिशा का पवन चलने लगा और हृदय में उल्लास भर आया।

कठैक वंजड वरसगी कठैक आधै खेत।
तरसा मत इण रीत सूं बदली बरस सचेत।। 108।।

कहीं तो बंजर में बरस गई और कहीं आधे खेत में ही । इस प्रकार मत तरसाओं । बादली, सचेत होकर बरसो।

कठैक छाजां खारियां कठैक छिणगण छांट।
कठैक पटक फुंवारियां वूठो घण जळ वांट।। 109।।

कंही तो प्रचुर मात्रा में, केवल नन्हीं-नन्हीं बूंदो के रूप से और कहीं फुन्हार सी ही पड़ी । हे, घन, जल का उचित वितरण करके खूब बरसो।

नीलो अंबर नीखरयो जाणे समद अपार।
कठैक काळा चूंखला मगरमच्छ उणियार।। 110।।

नीलाम्बर अपार समुद्र की भांति निखर उठा है। कंही-कंही दिखाई पड़ने वाले काले बादल मगरमच्छ की भांति लगते है।