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ज़मीं, फिर दर्द का ये सायबाँ कोई नहीं देगा / ज़फ़र गोरखपुरी
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ज़मीं, फिर दर्द का ये सायबाँ<ref>छप्पर</ref> कोई नहीं देगा।
तुझे ऐसा कुशादाँ<ref>विस्तृत</ref> आसमाँ कोई नहीं देगा।
अभी ज़िन्दा हैं, हम पर ख़त्म कर ले इम्तिहाँ सारे
हमारे बाद कोई इम्तिहाँ, कोई नहीं देगा।
जो प्यासे हो तो अपने साथ रक्खो अपने बादल भी
ये दुनिया है, विरासत में कुआँ कोई नहीं देगा।
हवा ने सुब्ह की आवाज़ के पर काट डाले हैं
फ़ज़ा चुप है, दरख़्तों में अज़ाँ कोई नहीं देगा।
मिलेंगे मुफ़्त शोलों की क़बाएँ बाँटने वाले
मगर रहने को कसग़ज़ का मकाँ कोई नहीं देगा।
हमारी ज़िन्दगी, बेवा दुल्हन, भीगी हुई लकड़ी
जलेंगे चुपके-चुपके सब, धुआँ कोई नहीं देगा।
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शब्दार्थ
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