भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कल़ायण ! / मनुज देपावत

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:07, 5 सितम्बर 2011 का अवतरण (कल़ायण ! / 'मनुज' देपावत का नाम बदलकर कल़ायण ! / मनुज देपावत कर दिया गया है)

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धरती रौ कण -कण ह्वे सजीव,मुरधर में जीवण लहरायौ ।
वा आज कल़ायण घिर आयी, बादळ अम्बर मं गहरायो ।।

वा स्याम वरण उतराद दिसा, "भूरोड़े- भुरजां" री छाया !
लख मोर मोद सूँ नाच उठ्यौ, वे पाँख हवा मं छितरायाँ ।।

तिसियारै धोरां पर जळकण, आभै सूँ उतर-उतर आया ।
ज्यूँ ह्वे पुळकित मन मेघ बन्धु, मुरधर पर मोती बरसाया ।।

बौ अट्टहास सुन बादळ रौ, धारोल़ा धरती पर आया ।
धडकै सूँ अम्बर धूज उठ्यौ, कांपी चपल़ा री कृस काया ।।

पण रुक-रुक नै धीरै -धीरै, वां बूंदा रौ कम हुयौ बेग ।
यूं कर अमोल निधि -निछरावळ, यूं बरस-बरस मिट गया मेघ ।।

पणघट पर 'डेडर' डहक उठ्या, सरवर रौ हिवड़ो हुळसायौ ।
चातक री मधुर 'पिहू' रो सुर, उणमुक्त गिगन मं सरसायौ ।।

मुरधर रे धोरां दूर हुयी, वा दुखड़े री छाया गहरी ।
आई सावण री तीज सुखद, गूंजी गीतां री सुर -लहरी ।।

झूलां रा झुकता "पैंग" देख तरुणा रौ हिवड़ो हरसायौ ।
सुण पड़ी चूड़ियाँ री खण -खण, वौ चीर हवा मं लहरायौ ।।

ऐ रजवट रा कर्मठ किसाण, मेहणत रा रूप जाका नाहर ।
धरती री छाती चीर चीर, ऐ धन उगा लावै बाहर ।।

उण मेहणत रौ फळ देवण नै, सुख दायक चौमासौ आयौ ।
धरती रो कण -कण ह्वे सजीव, मुरधर मं जीवण लहरायौ ।।