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मन की चाह / अनिल जनविजय

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तू मेरी होगी

मन में मेरे चाह यही थी


तू मिलेगी मुझको तेरा प्यार मिलेगा

विरहाकुल मन को मेरे

तेरे उर का सार का मिलेगा

यही सोच मैं कलरव करता

गाता मीठे गान

पर बदल रही है भीतर से तू

न था यह अनुमान

सोच न पाया व्यथा मिलेगी

दारुण हाहाकार मिलेगा

तू मेरी प्रियतमा रूपवंता

तुझसे नीरस संसार मिलेगा


अवचेतन में स्तब्ध शून्य था

बची जरा भी दाह नहीं थी


दृष्टि धुँधली हो गई मेरी

शेष अब कोई राह नहीं थी


(2002)