भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रकाश हास / चन्द्रकुंवर बर्त्वाल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:40, 22 जनवरी 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

किस प्रकाश का हास तुम्हारे मुख पर छाया
तरुण तपस्वी तुमने किसका दर्शन पाया ?

सुख-दुख में हँसना ही किसने तुम्हे सिखाया
किसने छूकर तुम्हें स्वच्छ निष्पाप बनाया ?

फैला चारों ओर तुम्हारे घन सूनापन
सूने पर्वत चारों ओर खड़े, सूने घन ।

विचर रहे सूने नभ में, पर तुम हँस-हँस कर
जाने किससे सदा बोलते अपने भीतर ?

उमड़ रहा गिरि-गिरि से प्रबल वेग से झर-झर
वह आनंद तुम्हारा करता शब्द मनोहर ।

करता ध्वनित घाटियों को, धरती को उर्वर
करता स्वर्ग धरा को निज चरणों से छूकर ।


तुमने कहाँ हृदय-हृदय में सुधा-स्रोत वह पाया
किस प्रकाश का हास तुम्हारे मुख पर छाया ?