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घर की याद-3 / चन्द्रकुंवर बर्त्वाल

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मैं लता भवन में आ ठहरा

कोकिल मेरे ऊपर कूकी
फूलों से झर-झर सुरभि झरी
केसर से पीत हुई भ्रमरी
केसर से दूर्वा ढकी हुई

कितना एकांत यहाँ पर है
मैं इस कुंज में दूर्वा पर
लेटूँगा आज शांत होकर
जीवन में चल-चल कर, थक कर

ये पद जो गिरी पर सदा चढ़े
छोटी-सी घाटी में उतरे
सुनसान पर्वतों से होकर
घनघोर जंगलों में विचरे

ये पद विश्राम माँगते अब
इस हरी-भरी धरती में आ
जो पद न थके थे अभी कभी
वे अब न सकेंगे पल-भर भी