बारह दोहे / आलोक श्रीवास्तव-१
भौचक्की है आत्मा, साँसे भी वीरान,
हुक्म दिया है जिस्म नें खाली करो मकान |
तुझमें मेरा मन हुआ कुछ ऐसा तल्लीन
जैसे जाए डूबकर मीरा को परवीन १
१ आबिदा परवीन
आँखों में लग जाये तो नाहक निकले खून
बेहतर है छोटा रखें रिश्तों का नाखून
व्याकुल है परमात्मा बेकल है अल्लाह
किसके बंदे नेक हैं कौन हुआ गुमराह
गुलमोहर सी जिंदगी धडकन जैसी फांस
दो तोले का जिस्म है सौ सौ टन की सांस
बूझो तो कैसा मिला अब तक हमको राज़
आधा आखर प्रेम का आधा पेट अनाज
कल महफ़िल में रात भर झूमा खूब गिटार
सौतेला सा एक तरफ रखा रहा सितार
जोधपुरी सफा, छड़ी जीने का अंदाज़
घर भर की पहचान थे बाबू जी के नाज़
चंदा कल आया नहीं लेकर जब बरात
हीरा खा कर सो गयी एक कुंवारी रात
उजली उजली देह पर नक्काशी का काम
ताजमहल की ल्हूबियाँ मजदूरों के नाम
चर्चाओं से शोध से इतिहासों से दूर
ताजमहल के रूप में जीवित हैं मजदूर
मान बेटे के नेह में एक सघन विस्तार
ताजमहल की रूह में जमाना जी का प्यार