भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तेरी मुक्ति / प्रतिभा सक्सेना

Kavita Kosh से
अनूप.भार्गव (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:14, 28 फ़रवरी 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरे स्वर तब तक न थमेंगे ,जब तक जीवन बीत न जाये
तेरी मुक्ति तभी है जिस दिन मेरी वाणी गीत न गाये !
और नहीं तो बँधे रहो ,
मेरे स्वर के बंधन चंचल हैं !
बरबस मन में उतर चलेंगे ,
मेरे अंतर्गीत विकल हैं !
     
तुम न रहो तो शायद फिर ,
सारा संसार विजन बन जाये !
तुम न सुनो तो हृत्तंत्री की
तान न फिर शायद जग पाये

तुम न सुनो तो संभव है ,
मेरी वाणी फिर गीत न गाये !
तुम न लखो तो शायद यह अस्तित्व ,
जगत में ही घुल जाये !

चलती रहें उजाड़ हवायें ,
जीवन की आशायें बिखरा ,
छायेगी अनजान बने से
सपनों पर बेसुध सी तंद्रा !

अब के बाद न जाने कितने
 दिन गुमसुम से ढल जायेंगे
जाने कितने आज सदा को ,
इसी तरह बन कल जायेंगे !

दृष्टि उठेगी महाशून्य में ,
सम्मुख कोई चित्र न होगा !
अब के बाद अकेलेपन का
शायद कोई मित्र न होगा !
दूर रहो तो एक मिलन की
चाह जगाते रहना प्रिय तुम ,!
मेरे स्वर की दुनियां में ,
मृदु राग जगाते रहना प्रिय तुम !
यों ही रहना -कहना है जब तक ये साँसें रूठ न जायें
तेरी मुक्ति तभी है जिस दिन मेरी वाणी गीत न गाये !