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दोहावली / तुलसीदास / पृष्ठ 18

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दोहा संख्या 171 से 180

कृपिन देइ पाइअ परो बिनु साधें सिधि होइ।
सीतापति सनमुख समुझि जो कीजै सुभ सोइ।171।

दंडक बन पावन करन चरन सरोज प्रभाउ।
ऊसर जामहिं खल तरहिं होइ रंक ते राउ।172।

बिनहीं रितु तरूबर फलत सिला द्रवति जल जोर।
राम लखन सिय करि कृपा जब चितवत जेहि ओर।173।

सिला सुतिय भइ गिरि तरे मृतक जिए जग जान।
राम अनुग्रह सगुन सुभ सुलभ सकल कल्यान।174।

सिला साप मोचन चरन सुमिरहु तुलसीदास।
तजहु सोच संकट मिटहिं पूजहिं मनकी आस।175।

 मुए जिआउ भालु कपि अवध बिप्रको पूत।
सुमिरहु तुलसी ताहि तू जाको मारूति दूत।176।

काल करम गुन दोष जगज ीव तिहारे हाथ ।
तुलसी रघुबर राबरो जानु जानकीनाथ।177।

रोग निकर तनु जरठपनु तुलसी संग कुलोग।
 राम कृपा लै पालिए दीन पालिबे जोग। 178।

 मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर ।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर।179।

भव भुअंग तुलसी नकुल डसत ग्यान हरि लेत।
चित्रकूट एक औषधी चितवत होत सचेत।180।