भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कवितावली/ तुलसीदास / पृष्ठ 11

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:21, 17 मार्च 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
 सुन्दर बदन , सरसीरूह सुहाए नैन,
 
मंजुल प्रसून माथें मुकुट जटनि के।

अंसनि सरासन, लसत सुचि सर कर,

तून कटि , मुनिपट लूटक पटनि के।।

नारि सुकुमारि संग, जाके अंग उबटि कै,

बिधि बिरचैं बरूथ बिद्युतछटनि के।।

गोरेको बरनु देखें सोनो न सलोनेा लागै,

 साँवरे बिलोकें गर्ब घटत धटनि के।16।



बलकल-बसन, धनु-बान पानि, तून कटि,

रूपके निधान घन-दामिनी-बरन हैं।

तुलसी सुतीय संग, सहज सुहाए अंग,

नवल कँवलहू तें केामल चरत हैं।।

औरै सो बसंतु, और रति, औरै रतिपति,

मूरति बिलोकें तन-मनके हरन हैं।

तापस बेषै बनाइ पथिक पथें सुहाइ,

चले लोकलोचननि सुफल करन हैं।17।


बनिता बनी स्यामल गौर के बीच ,

 बिलोकहु, री सखि! मोहि-सी ह्वै।

मनुजोगु न कोमल, क्यों चलिहै,

सकुचाति मही पदपंकज छ्वै।।

तुलसी सुनि ग्रामबधू बिथकीं,
 
पुलकीं तन, औ चले लोचन च्वै।

सब भाँति मनोहर मोहनरूप,

अनूप हैं भूपके बालक द्वै।18।


 साँवरे-गोरे सलेाने सुभायँ, मनोहरताँ जिति मैनु लियो है।

बान-कमान, निषंग कसें, सिर सोहैं जटा, मुनिबेषु कियेा है।।

संग लिएँ बिधुबैनी बधू, रतिको जेहि रंचक रूप दियो है।

पायन तौ पनहीं न , पयादेहिं क्यों चलिहैं, सकुचात हियो है।19।


रानी मैं जानी अयानी महा, पबि-पाहनहू तें कठोर हियो है।

राजहुँ काजु अकाजु न जान्यो, कह्यो तियको जेहिं कान कियो है।।

ऐसी मनेाहर मूरति ए, बिछुरें कैसे प्रीतम लोगु जियो है।

आँखिनमें सखि! राखिबे जोगु , इन्हैं किमि कै बनबासु दियो है।20।